Vrat kahani – व्रत कथा

मंगला गौरी व्रत की कथा – Mangla Gauri Vrat ki kahani

एक राजा के दो रानियां थी। बड़ी रानी का नाम दुहाग था और छोटी रानी का नाम सुहाग था। छोटी रानी व्रत उपवास और धर्म आदि करती रहती थी। बड़ी रानी को यह सब पसंद नहीं था। छोटी रानी शांत स्वाभाव की और बड़ी रानी क्रोधी स्वाभाव की थी। छोटी और बड़ी रानी ने मंगला गौरी का डोरा ( संकल्प सूत्र ) लिया था। बड़ी रानी ने किसी बात पर क्रोध में आकर डोरा तोड़ दिया। वह पागल हो गई।
देवी ने स्वप्न में आकर उसे बताया की डोरा तोड़ने के कारण वह पागल हुई है। उसने यह बात छोटी रानी को बताई। दोनों रानियों ने देवी के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी। रानी ठीक हो गई। सावन महीना आने पर मंगला गौरी का व्रत किया। भक्ति भाव से पूजा की और कथा सुनी। हवन किया , ब्राह्मण जोड़े जिमाये , नगर में ढिंढोरा पिटवाया कि सभी भक्ति भाव से और विधि विधान से सम्पूर्ण व्रत करें।
हे माँ , कहानी कहनेवाले को , सुनने वाले को और हुंकार भरने वाले को सम्पूर्ण फल मिले।
माँ मंगला गौरी की जय !!!

नागपंचमी की कथा – Nag panchami ki kahani

एक सेठ के सात लड़के थे। सातों विवाहित थे। सबसे छोटे लड़के की पत्नी सुशील और बुद्धिमान थी। उसका कोई भाई नहीं था। एक दिन बड़ी बहू सभी को साथ लेकर मिट्टी लाने के लिए गई। वे खुरपी से मिट्टी खोदने लगी। तभी वहां एक सांप निकला, जिसे बड़ी बहू खुरपी से मारने लगी। यह देखकर छोटी बहू ने कहा- इसने हमारा क्या बिगाड़ा है ? इस बेचारे निरपराध को मत मारो ।
यह सुनकर बड़ी बहू ने उसे नहीं मारा। सांप एक तरफ जाकर बैठ गया । छोटी बहू ने उससे कहा- हम अभी लौट कर आते हैं तुम यहीं रुकना , जाना मत। यह कहकर वह सबके साथ घर चली गई और वहाँ कामकाज लगने से भूल गई की उसने सांप को रुकने को कहा है।
दूसरे दिन याद आने पर वहां गई तो सांप वहीं था। वह बोली मुझे क्षमा करना भैया , मुझसे भूल हो गई। सांप ने कहा – भैया कहा है तो छोड़ देता हूँ।आज से तू मेरी बहन है , जो इच्छा हो मांग ले। उसने कहा – मेरा कोई भाई नहीं था। मुझे भाई मिल गया।
कुछ दिन बाद वह सांप मनुष्य का रूप लेकर बहन के घर आया और कहा – मेरी बहन को मेरे साथ भेजो। सांप ने विश्वास दिलाया की वह उसका दूर के रिश्ते का भाई है। रास्ते में बहन को अपने वही सांप होने की बात बताई। सांप के घर पहुँच कर वहाँ का ठाट बाट देखकर हैरान रह गई।
एक दिन सांप की माँ ने कहा- ‘मैं एक काम से बाहर जा रही हूँ , तू अपने भाई को दूध पिला देना। उसने दूध दिया वह गर्म था सांप का मुंह जल गया। यह देखकर सर्प की माता बहुत गुस्सा हुई। सांप ने कहा कि बहिन को अब उसके घर भेज देना चाहिए। तब सांप और उसके पिता ने उसे बहुत सा सोना, चाँदी, जवाहरात, वस्त्र आदि देकर उसके घर पहुँचा दिया।
इतना सारा धन देखकर बड़ी बहू ईर्ष्या से बोली – भाई तो बड़ा धनवान है, तुझे अधिक धन लाना चाहिए था । सांप ने यह सुना तो उसने और धन लाकर दिया। सांप ने छोटी बहू को हीरा-मणियों का एक अद्भुत हार दिया था। उसकी प्रशंसा उस देश की रानी ने भी सुनी और वह राजा से बोली कि- सेठ की छोटी बहू का हार यहाँ आना चाहिए।’ राजा ने मंत्री को हुक्म दिया कि उससे वह हार लेकर शीघ्र उपस्थित हो मंत्री ने सेठजी से जाकर कहा कि ‘महारानीजी छोटी बहू का हार पहनेंगी, वह उससे लेकर मुझे दे दो’। सेठजी ने डर के कारण छोटी बहू से हार मंगाकर दे दिया।
छोटी बहू को यह बात बहुत बुरी लगी, उसने अपने भाई को याद किया और आने पर कहा – भैया ! रानी ने मेरा हार छीन लिया है, तुम कुछ ऐसा करो कि जब वह हार उसके गले में रहे, तब तक के लिए सर्प बन जाए और जब वह मुझे लौटा दे तब हीरों और मणियों का हो जाए। सर्प ने ठीक वैसा ही किया। जैसे ही रानी ने हार पहना, वैसे ही वह सांप बन गया। यह देखकर रानी चीख पड़ी और रोने लगी।
यह देख कर राजा ने सेठ के पास खबर भेजी कि छोटी बहू को तुरंत भेजो। सेठजी डरते हुए छोटी बहू को साथ लेकर वहां पहुंचे। राजा ने छोटी बहू से पूछा- तुने क्या जादू किया है, मैं तुझे दण्ड दूंगा। छोटी बहू बोली- राजन ! क्षमा करें , लेकिन यह हार ही ऐसा है कि मेरे गले में हीरों और मणियों का रहता है और दूसरे के गले में सांप बन जाता है। यह सुनकर राजा ने वह सांप बना हार उसे देकर कहा- अभी पहनकर दिखाओ। छोटी बहू ने जैसे ही उसे पहना तो हार हीरे-मणियों का हो गया।
यह देखकर राजा को उसकी बात का विश्वास हो गया और उसने प्रसन्न होकर उसे बहुत सी मुद्राएं भी पुरस्कार में दीं। छोटी बहू अपने हार और धन सहित घर लौट आई। उसके धन को देखकर बड़ी बहू ने ईर्ष्या के कारण उसके पति से कहा उसकी पत्नी के पास ना जाने कहाँ से इतना धन आया है। यह सुनकर उसके पति ने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा- ठीक-ठीक बता कि यह धन तुझे कौन देता है ? तब वह अपने भाई सांप को याद करने लगी।
तब उसी समय सांप ने प्रकट होकर कहा- जो मेरी बहन के आचरण पर संदेह करेगा उसे मैं खा लूँगा। यह सुनकर छोटी बहू का पति बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सर्प देवता का बड़ा सत्कार किया। उसी दिन से नागपंचमी का त्योहार मनाया जाता है और स्त्रियाँ सर्प को भाई मानकर उसकी पूजा करती हैं।

सोलह सोमवार व्रत की कथा – Solah Somvaar Vrat Ki Katha

एक बार शिवजी और पार्वती जी मृत्युलोक में भ्रमण करने पधारे। दोनों विदर्भ देश में अमरावती नामक सुन्दर नगर में पहुंचे। यह नगरी सभी प्रकार के सुखों से भरपूर थी। वहां बहुत सुन्दर शिवजी का मंदिर भी था। भगवान शंकर पार्वती के साथ उस मंदिर में निवास करने लगे।
एक दिन माता पार्वती भोलेनाथ के साथ चौसर खेलने की इच्छा प्रकट की। शिवजी ने उनकी बात मन ली और दोनों चौसर खेलने लगे। तभी मंदिर का पुजारी पूजा करने आया। माता पार्वती ने उससे पूछा – पुजारी जी हममे से कौन जीतेगा ? पुजारी बोला – महादेव ही जीतेंगे। थोड़ी देर बाद खेल समाप्त हुआ तो विजय पार्वती की हुई।
पार्वती को पुजारी पर क्रोध आया और उसे कोढ़ी होने का श्राप दे दिया। कोढ़ से ग्रस्त पुजारी बहुत दुखी रहने रहने लगा। एक दिन देवलोक की अप्सरा शिव जी की पूजा के लिए उस मंदिर में आई। पुजारी को कोढ़ की अवस्था में देखकर दयाभाव से पूछताछ करने लगी। पुजारी ने सारी बात बता दी। अप्सराएँ बोली – तुम सभी व्रतों में श्रेष्ठ सोलह सोमवार के व्रत करो। इससे शिव जी प्रसन्न होंगे और वे तुम्हारे कष्ट अवश्य दूर करेंगे। पुजारी ने इस व्रत की विधि पूछी।
अप्सरा ने बताया – सोमवार के दिन व्रत रखो। स्वच्छ वस्त्र धारण करो। संध्या और उपासना के बाद आधा किलो गेहूं का आटा लेकर इसके तीन अंग बनाओ। घी , गुड़ , दीप , नैवेद्य , पुंगीफल , बेलपत्र , जनेऊ जोड़ा , चन्दन ,अक्षत और पुष्प आदि से प्रदोषकाल में भगवान शंकर का पूजन करो। तीन अंग में से एक शिवजी को अर्पण करो। बाकि दो को शिव जी के प्रसाद के रूप में उपस्थित जन को बाँट दो। खुद भी प्रसाद लो। इस तरह सोलह सोमवार व्रत करो। सत्रहवें सोमवार को पाव भर की पवित्र आटे की बाटी बनाओ। उसमे घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनाओ। शिव जी को भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बाँट दो। इसके बाद कुटुंब सहित प्रसाद लो। इससे सभी मनोरथ पूरे हो जाते हैं।
ऐसा बताकर अप्सराएँ चली गई। पुजारी ने यथाविधि सोलह सोमवार के व्रत किये। भगवान शिव की कृपा से कोढ़ मुक्त हो गया और आनंद से रहने लगा।
कुछ दिन बाद शिवजी और पार्वती जी वापस उसी मंदिर मेंआये । ब्राह्मण को निरोगी देखकर कारण पूछने लगी। पुजारी ने सोलह सोमवार व्रत की कथा सुनाई। पार्वती जी खुद भी सोलह सोमवार के व्रत करने के लिए तैयार हो गई। ये व्रत करने से उनसे रूठे हुए पुत्र कार्तिकेय माता के आज्ञाकारी हो गए। कार्तिकेय ने माता से पूछा कि आपने क्या किया जिससे मेरा हृदय परिवर्तन हो गया।
पार्वती ने सोलह सोमवार की कथा उन्हें सुना दी। कार्तिकेय ने अपने खास मित्र जो कही खो गया था उसके मिलने की कामना से सोलह सोमवार के व्रत किये तो उन्हें जल्द ही वह मित्र मिल गया। मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का कारण पूछा तो कार्तिकेय ने उसे सोलह सोमवार के व्रत करना बताया। मित्र ने व्रत की विधि पूछी और स्वयं के विवाह की मनोकामना से सोलह सोमवार के व्रत किये।
कार्तिकेय का मित्र एक स्वयंवर की सभा में गया तो वहां की राजकुमारी ने आकर्षित होकर उसके गले में वर माला डाल दी और उसे अपना पति स्वीकार कर लिया। राजा ने उन्हें बहुत सा धन और सम्मान देकर भेजा। दोनों सुख से रहने लगे। जब सोलह सोमवार के व्रत का उसकी पत्नी को पता लगा तो उसने पुत्र प्राप्ति की कामना से सोलह सोमवार के व्रत किये। उसके एक अति सुन्दर ,सुशील और बुद्धिमान पुत्र प्राप्त हुआ। जब वह बड़ा हुआ तो उसने अपनी माँ से सोलह सोमवार के व्रत की गाथा सुनी तो उसने राज्याधिकार प्राप्त करने के लिए सोलह सोमवार के व्रत शुरू कर दिए।
एक राजा को अपनी कन्या के लिए योग्य पुरुष की तलाश थी। राजा ने अपनी कन्या का विवाह उस सर्व गुण संपन्न पुरुष से कर दिया। राजा के कोई पुत्र नहीं था। अपने दामाद की योग्यता देखकर उसे राजा बना दिया। राजा बनने के बाद भी वह सोलह सोमवार के व्रत करता रहा। सत्रवां सोमवार आने पर उसने अपनी पत्नी से शिवजी की पूजा के लिए मंदिर चलने को कहा। उसने दासियों से कहकर पूजा की सामग्री तो भिजवा दी लेकिन खुद नहीं गयी।
राजा ने शिवजी की पूजा समाप्त की तो आकाशवाणी हुई – हे राजा , अपनी रानी को राजमहल से निकाल दे नहीं तो सर्वनाश हो जायेगा। राजदरबार में आकर सभासदों से विचार विमर्श किया और सर्वनाश के भय से रानी को राजमहल से निकाल दिया गया। अपने दुर्भाग्य को कोसती हुई नगर से बाहर चली गई। दुखी मन से चलते हुए एक गांव में पहुंची। वहां एक बुढ़िया थी जो सूत बेचती थी। बुढ़िया ने दया करके रानी को अपने साथ सूत बेचने के लिए रख लिया। जब से रानी को साथ रखा बुढ़िया का सूत बिकना बंद हो गया। बुढ़िया ने रानी से वहां से जाने को कह दिया। रानी एक तेली के यहाँ काम मांगने गई उसी समय तेली के मटके चटक गए और उसका तेल बह गया। तेली ने भी उसे वहां से भगा दिया। दुखी होकर रानी एक नदी के पास गई तो नदी का सारा पानी सूख गया। एक पेड़ के नीचे बैठी तो पेड़ के सारे पत्ते सूख कर गिर गये।
आस पास के लोगों ने यह देखा तो उसे पकड़ कर मंदिर के पुजारी गुसांई जी के पास ले गए। गुसाईं जी देखते ही जान गए की यह कोई विधि की मारी कुलीन स्त्री है। गुसाईं जी ने रानी से कहा कि वह उनके आश्रम में उनकी पुत्री की तरह रहे। रानी आश्रम में रहने लगी। रानी भोजन बनाती थी तो उसमे कीड़े पड़ जाते थे। पानी भरकर लाती तो वह गन्दा हो जाता था। गुसाईं जी ने दुखी होकर उससे पूछा की तुम्हारी यह दशा कैसे हुई ? यह किस देवता का कोप है ? जब रानी ने शिव जी की पूजा में नहीं जाने वाली बात बताई तो गुसाईं जी बोले – पुत्री तुम सोलह सोमवार के व्रत करो। इससे तुम अपने कष्टों से मुक्ति पा लोगी।
गुसाईं जी की बात मानकर रानी ने सोलह सोमवार के व्रत किये सत्रहवें सोमवार के दिन विधि विधान से शिवजी की पूजा की। पूजन के प्रभाव से राजा को रानी की याद सताने लगी और रानी को ढूंढने के लिए उसने चारों दिशाओं में दूत भेज दिए। रानी की तलाश में घूमते हुए दूत गुसाई के आश्रम में पहुँच गए। राजा को खबर लगी तो राजा रानी को ले जाने आश्रम पहुँच गया। गुसाईं जी से बोला – यह मेरी पत्नी है। शिव जी के कोप की वजह से मैने इसे महल से निकाल दिया था। अब शिवजी का प्रकोप शांत हो चुका है। इसे मेरे साथ जाने की आज्ञा दीजिये। गुसाई जी ने रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी। रानी बहुत प्रसन्न हुई।
राजा और रानी के आने की ख़ुशी में नगर वासियों ने खूब सजावट की , मंगल गान गाये , पंडितों ने मन्त्र आदि गाकर स्वागत किया। इस तरह धूमधाम से रानी का महल में प्रवेश हुआ। राजा ने ब्राह्मणो को दान आदि दिए , याचकों को धन धान्य दिया। जगह जगह भूखे लोगों को खाना खिलाने के लिए भंडारे खुलवाए। राजा रानी सोलह सोमवार के व्रत करते हुए शिव जी का विधि विधान से पूजन करते हुए सुखपूर्वक लंबे समय तक जीवन बिताने के बाद शिवपुरी पधारे।
जो मनुष्य मन , वचन और कर्म से भक्तिपूर्वक सोलह सोमवार का व्रत और पूजन विधिवत करता है वह सभी सुखों को प्राप्त करके शिवपुरी को गमन करता है। यह व्रत सभी मनोरथ पूर्ण करता है।

 

सोमवार के व्रत की कथा – Monday Fast Story

एक नगर में बहुत धनवान साहूकार रहता था। उसके पास धन की कमी नहीं थी लेकिन पुत्र नहीं होने के कारण वह बहुत दुखी रहता था। पुत्र की कामना में वह हर सोमवार शिवजी का व्रत और पूजन करता था और शाम को मंदिर जाकर शिव जी के सामने दिया जलाया करता था।
उसकी भक्ति देखकर माता पार्वती ने शिवजी से कहा कि यह साहूकार आपका व्रत और पूजन नियमपूर्वक श्रद्धा से करता है। आपको इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए।
शिव जी ने कहा – यह संसार कर्म क्षेत्र है। किसान जैसा बीज खेत में बोता है वैसी ही फसल काटता है। इसी प्रकार मनुष्य जैसे कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। माता पार्वती ने अधिक आग्रह करके कहा – यह आपका अनन्य भक्त है। आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं। उनका दुःख दूर करते हैं। ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपका व्रत और पूजन क्यों करेंगे अतः इसका दुःख दूर करें।
माता पार्वती का ऐसा आग्रह देखकर शिवजी बोले – इसके कोई पुत्र नहीं है। इसलिए ये इतना दुखी है। इसके भाग्य में पुत्र नहीं है फिर भी में इसे बारह साल तक के लिए पुत्र का वर देता हूँ लेकिन बारह वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो जाएगी। मैं इसके लिए इतना ही कर सकता हूँ। माता पार्वती और भगवान् शिव की ये बातें साहूकार सुन रहा था। इसे सुनकर वह न तो खुश हुआ ना दुखी हुआ। वह पहले की तरह शिव जी का व्रत और पूजन करता रहा।
कुछ समय बाद साहूकार की पत्नी के गर्भ से दसवें महीने में अति सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। साहूकार के घर में बहुत खुशियां मनाई गई लेकिन साहूकार जानता था की उसकी उम्र सिर्फ बारह साल है। उसने यह भेद किसी को नहीं बताया। जब बालक 11 साल का हुआ तो साहूकार ने बालक के मामा को बुलाया। मामा को बहुत सारा धन देकर कहा – इस बालक को काशी पढ़ने के लिए ले जाओ और रास्ते में जहाँ भी रुको यज्ञ कराना और ब्राह्मण भोजन कराके उन्हें दक्षिणा आदि देना।
दोनों मामा भांजा यज्ञ कराते , ब्राह्मण भोजन कराते और दक्षिणा देते काशी की और चल पड़े। एक नगर से गुजर रहे थे ,उस नगर के राजा की कन्या का विवाह होने वाला था। जिसके साथ उसकी शादी होने वाली थी वह एक आँख से काना था। उसके पिता को चिंता थी कि उसे देखकर कहीं राजकुमारी शादी के लिए मना ना कर दे। जब उसने साहूकार के सुन्दर के लड़के को देखा तो सोचा की द्वार पर की जाने वाली शादी की रस्म इससे करवा लेते हैं । उसने मामा भांजा से बात की तो वे राजी हो गए।
साहूकार में दूल्हे के वस्त्र भांजे को पहना दिए और उसे घोड़ी पर बैठाकर कन्या के द्वार पर ले गये। द्वार पर होने वाली रस्म ख़ुशी से पूरी हो गयी। काने राजकुमार के पिता ने सोचा विवाह की रस्मे भी इसी से करवा लें तो ठीक रहेगा। उसने मामा भांजा से फेरों तथा कन्या दान आदि की रस्मे करवाने की प्रार्थना की और बहुत सा धन देने की बात भी कही। दोनों ने सहर्ष इसे भी मान लिया और ये रस्मे भी हो गई। भांजे ने राजकुमारी की चुंदड़ी के पल्लू पर लिख दिया की तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ है लेकिन तुम्हे एक काने राजकुमार के साथ भेजा जायेगा। मैं पढ़ने के लिए काशी जा रहा हूँ।
राजकुमारी में चुंदड़ी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया। उसने अपने माता पिता को इस धोखे के बारे में बताया और कहा की जिसके साथ मेरा विवाह हुआ है वही मेरा पति है। राजकुमारी के माता पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस लौट गई।
मामा भांजा काशी पहुँच गये। लड़के ने पढ़ाई शुरू कर दी और मामा यज्ञ करने लगा। जिस दिन लड़के की आयु 12 साल की हुई उसने मामा से कहा – आज मेरी तबियत ठीक नहीं लग रही। मामा बोले – अंदर आकर सो जाओ। लड़का अंदर आकर सो गया और थोड़ी देर बाद उसके प्राण निकल गए। मामा को पता लगा तो वह बहुत दुखी हुआ लेकिन यज्ञ जारी रहने के कारण वह रो नहीं सका। यज्ञ का काम समाप्त होने और ब्राह्मणों के जाने के बाद वह जोर जोर से रोने लगा।
शिव पार्वती वहाँ से गुजर रहे थे। रोने की आवाज सुनी तो पार्वती बोली – महाराज कोई दुखिया है उसका दुःख दूर कीजिये। शिव पार्वती वहाँ गए तो पार्वती ने कहा – महाराज यह तो वही लड़का है जो आपके वरदान से उत्पन्न हुआ था। शिव जी ने कहा – इसकी आयु इतनी ही थी जिसे यह भोग चुका है। पार्वती ने कहा – इसे और आयु दीजिये अन्यथा इसके माता पिता तड़प तड़प कर मर जायेंगे। माता पार्वती के अधिक आग्रह करने पर शिव जी ने लड़के को जीवन दान दे दिया। लड़का जीवित हो गया। शिव पार्वती कैलाश पर्वत की ओर चले गए।
शिक्षा पूरी होने के बाद मामा और भांजा उसी प्रकार यज्ञ करते ब्राह्मण भोजन कराते अपने घर के लिए चलने लगे। रास्ते में उसी नगर में आये जहाँ लड़के की शादी हुई थी। वहाँ भी यज्ञ प्रारम्भ किया। राजा ने उसे पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उनकी खूब आवभगत की। दास दसियों सहित आदरपूर्वक अपने पुत्री और दामाद को विदा किया।
अपने शहर के निकट पहुँचने पर मामा ने कहा – मैं पहले जाकर तुम्हारे माता पिता को खबर कर आता हूँ। जब मामा घर पहुंचे तो पाया की उसके माता पिता छत पर यह प्रण करके बैठे थे की यदि उनका पुत्र सकुशल वापस आएगा तो ही नीचे उतरेंगे अन्यथा वहाँ से कूदकर प्राण त्याग देंगे। लड़के के मामा ने जब उन्हें सारे समाचार सुनाये तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। सेठ सेठानी आनंद पूर्वक नीचे आये। उन्होंने अपने पुत्र और पुत्र वधु का भरपूर स्वागत किया। सभी ख़ुशी ख़ुशी रहने लगे।
जो भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढता या सुनता है उसके सब दुःख दूर होकर मनोकामना पूर्ण होती है। इस
लोक में कई प्रकार के सुख भोगकर अंत में सदाशिव के लोक को प्राप्त होता है।

शनिवार के व्रत की कहानी Saturday vrat Fast

 

एक ब्राह्मण को सपने में नीली घोड़ी पर नीले कपड़े पहने एक आदमी दिखाई देता है और कहता है – हे ब्राह्मण देवता मैं तेरे लगूंगा। ब्राह्मण घबरा कर उठ गया। अगले दिन यही सपना उसे फिर आता है। यह सपना उसे रोज आने लगा । वह परेशान हो गया और चिंता के मारे दुबला होने लगा। उसकी पत्नी ने कारण पूछा तो उसने सपने के बारे में बताया। ब्राह्मणी बोली वे अवश्य ही शनि महाराज होंगे। अबकी बार दिखे तो कहना ” लग जाओ पर सवा पहर से ज्यादा मत लगना ” उस दिन सपना आने पर ब्राह्मण ने कहा लग जाओ पर कितने समय के लिए लगोगे ? शनि जी बोले – साढ़े सात वर्ष का लगूंगा। ब्राह्मण ने कहा – क्षमा करें शनि जी इतना भारी तो मुझसे झेला नहीं जायेगा। तब शनि जी बोले – तो पांच वर्ष का लग जाऊंगा। ब्राह्मण बोला – यह भी मेरे लिए ज्यादा है। शनि जी बोले – ढ़ाई साल का लग जाऊं ? ब्राह्मण ने मना किया तो शनि जी कहने लगे सवा पहर का तो लगूंगा ही। इतना तो कोढ़ी , कलंगी , भिखारी के भी लग जाता हूँ। तब ब्राह्मण ने कहा – ठीक है। ब्राह्मण को सवा पहर की शनि की दशा लग गई।
ब्राह्मण ने नींद से जागकर ब्राह्मणी से कहा – मेरे सवा पहर शनि की दशा लग गई है। इसलिए मैं जंगल में जाकर यह समय बिताऊंगा। मेरे लिए खाने पीने का सामान बांध दे। मेरे पीछे से किसी से लड़ाई झगड़ा ना हो इसका ध्यान रखना । ज्यादातर घर में ही रहना। बच्चों का भी ध्यान रखना। इस सवा पहर के समय में कोई गाली भी दे तो चुपचाप सुन लेना। बहस मत करना। यह सब समझा कर ब्राह्मण जंगल में चला गया।
जंगल में ब्राह्मण एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गया और हनुमान जी का पाठ करने लगा। एक पहर बीत गया। ब्राह्मण ने सोचा बाकि बचा समय रास्ते में बीत जायेगा। इसलिए वहां से चल दिया। रास्ते में एक बाड़ी में मतीरे लगे देखे। माली से एक मतीरा खरीदा , पोटली में बांधा और आगे बढ़ा।
आगे एक आदमी मिला जो असल में शनिदेव थे। ब्राह्मण से पूछा पोटली में क्या है ? उसने कहा मतीरा है। शनि देव बोले दिखाओ। ब्राह्मण ने पोटली खोली। उसमे राजकुमार का कटा हुआ खून से लथपथ सिर दिखा। शनिदेव ब्राह्मण को राजा के पास ले गए और कहा की इस ब्राह्मण ने राजकुमार की हत्या कर दी है। इसके पास पोटली में राजकुमार का सिर है।
राजा ने कहा – मैं यह नहीं देख सकता। इस ब्राह्मण को सूली पर चढ़ा दो। राजा के यहाँ हाहाकार मच गया। ब्राह्मण को सूली पर चढ़ाने से पहले पूछा गया की उसकी कोई आखिरी इच्छा हो तो बताये। ब्राह्मण ने सोचा किसी तरह सवा पहर पूरा करना होगा। उसने कहा वह रोज बालाजी की कथा सुनता है। मरने से पहले अंतिम बार बाला जी की कथा सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मण को कथा सुनाने का प्रबंध किया गया।
कथा कहते कहते सवा पहर पूरा हो गया। शनि की दशा टलते ही राजकुमार शिकार खेल कर लौटता हुआ दिखाई दिया। राजकुमार को आता देख राजा बहुत खुश हुआ। लेकिन उसे निर्दोष ब्राह्मण की हत्या का दोष लगने का डर सताने लगा। उसने तुरंत घुड़सवार सैनिकों को ब्राह्मण को आदर सहित ले आने के लिए भेजा। ब्राह्मण राजदरबार में आया तो राजा ने क्षमा मांगी और पोटली दिखाने के लिए कहा। पोटली खोली तो उसमे मतीरा था।
राजा ने इन सबके बारे में पूछा तो ब्राह्मण ने बताया – मुझे सवा पहर की शनिश्चर की दशा लगी थी इस कारण यह सब तमाशा हुआ। राजा ने पूछा – यह दशा कैसे टलती है ? ब्राह्मण बोला – राजा या सेठ के लगे तो काला हाथी या काला घोड़ा दान करे। गरीब के लगे तो पीपल की पूजा करे। पूजा करे तब बोले – साँचा शनिश्चर कहिये जाके पाँव सदा ही पड़िए। शनि की कहानी सुने। तिल का तेल और काला उड़द दान करे।
काले कुत्ते को तेल से चुपड़ कर रोटी खिलाये तो शनिश्चर की दशा उतर जाती है। राजा ने उसे मतीरा वापस दे दिया। घर आकर ब्राह्मण ने मतीरा काटा तो उसमे बीज की जगह हीरे मोती निकले। ब्राह्मणी ने पूछा – यह कहाँ से लाये ? आप तो कह रहे थे शनि की दशा लगी है। ब्राह्मण ने कहा – जब दशा लगी थी तो यही मतीरा राजकुमार का सिर बन गया था। उतरती दशा के शनि जी निहाल कर गए।
हे शनि देवता जैसी ब्राह्मण के शनि की दशा लगी वैसी किसी को ना लगे। निहाल सबको करे।
शनिदेव की जय !!!

शुक्रवार संतोषी माता के व्रत की कहानी – Friday Santoshi mata vrat story

एक बुढ़िया के के सात बेटे थे। छः बेटे कमाते थे और सातवां बेटा नहीं कमाता था। बूढ़ी माँ कमाने वाले बेटों के लिए भोजन बनाकर उन्हें खिलाती और बची हुई झूठन सातवें बेटे को दे दिया करती थी। बेटे को यह पता नहीं था। उसकी पत्नी ने उसे यह बात बताई।
उसे विश्वास नहीं हुआ। छुपकर देखा तो उसे पता चला की यह सच था। उसे बड़ा दुःख हुआ। माँ के खाना खाने बुलाने पर वह बोला – मैं यह खाना नहीं खाऊंगा। परदेस जाकर कमाई करूँगा। माँ बोली – कल जाता हो तो आज ही चला जा। यह सुनकर वह तुरंत घर से निकल गया।
रास्ते में पत्नी से मिला। वह गोबर से कंडे बना रही थी। बोला – मैं परदेस जा रहा हूँ कुछ समय बाद लौटूंगा। तुम अपना धर्म का पालन करते हुए ध्यान से रहना। वह बोली आप मेरी चिंता ना करें। मुझे भूलना मत और मुझे अपनी कुछ निशानी दे दो। उसे देखकर मैं समय बिता लूँगी। उसने उसे अपनी अंगूठी दे दी और चल पड़ा।
एक बड़े शहर में बड़ी दुकान देखकर उसने काम माँगा। वहां जरुरत थी इसलिए सेठ ने उसे काम पर रख लिया। उसने दिन रात मेहनत की। सेठ उसे तरक्की देता गया। कुछ ही समय में अपनी मेहनत और लगन से उसने सेठ का विश्वास इतना जीत लिया की सेठ ने उसे अपना पार्टनर बना लिया। कुछ समय बाद सारा काम उसे सौंप कर सेठ यात्रा पर निकल गया। अब वह खुद बड़ा सेठ बन चुका था।
उधर उसकी पत्नी पर बड़े जुल्म हो रहे थे। घर के सभी लोग उससे दिन भर काम करवाते। जंगल में लकड़ी लाने भेजते। भूसे की रोटी खाने को देते। नारियल के कटोरे में पानी पिलाते। एक दिन जंगल जाते समय उसने रास्ते में कुछ औरतों को संतोषी माता का व्रत करते देखा।
कथा कहते हुए सुना। उसने पूछा की यह व्रत कैसे करते है , और इसे करने से क्या होता है। उनमे से एक औरत ने बताया कि यह संतोषी माता का व्रत है। इसे करने से दरिद्रता मिटती है , मन की चिंता दूर होती है , कुंवारों को मनपसंद जीवन साथी मिलता है , रोग दूर होते है , हर प्रकार का सुख प्राप्त होता है। इसे करने के लिए अपनी सुविधा और शक्ति के अनुसार गुड़ चना खरीद लेना। हर शुक्रवार व्रत करना और कथा कहना या सुनना।
जब तक कार्य सिद्ध नहीं हो जाता बिना क्रम तोड़े व्रत करना। कथा सुनने वाला कोई ना मिले तो दीपक को सामने रखकर कथा कहना। कार्य सिद्ध होने पर उद्यापन करना। उद्यापन में अढ़ाई सेर खाजा , उतनी ही खीर और उतना ही चने का साग बनाना। आठ लड़कों को भोजन कराना। लड़के परिवार के ही हो तो अच्छा नहीं तो पड़ोस से भी बुला सकते हैं। भोजन कराकर व केला आदि फल देकर विदा करना। खट्टे फल नहीं देना। उस दिन घर में कोई खटाई ना खाये।
सारी विधि जानकर उसने गुड़ चने खरीद लिए। रास्ते में संतोषी माता के मंदिर में भोग लगाकर याचना करने लगी – माँ मुझे व्रत के नियम कायदे नहीं पता। मैं शुक्रवार का व्रत निष्ठां से करुँगी , मेरा दुःख दूर करना। एक शुक्रवार बीता ,दूसरे शुक्रवार को पति का पत्र आया ,तीसरे शुक्रवार पति के भेजे रूपये आ गए। परन्तु सब घर वाले ताना मारने से नहीं चूकते। दुखी होकर माता के मंदिर में प्रार्थना करने लगी – माँ मुझे पैसा नहीं चाहिए। मुझे अपने स्वामी के दर्शन करने हैं। माता ने उसे आशीर्वाद देकर कहा – तेरा पति जल्दी ही आएगा। वह बहुत खुश हुई।
परदेस में उसके पति के पास बिल्कुल समय नहीं था। दिनभर व्यस्त रहता था। माँ संतोषी ने उसके सपने में आकर उसे बताया कि उसकी पत्नी बहुत दुखी है। उसे उसके पास जाना चाहिए। उसे पत्नी की बहुत चिंता होने लगी। दुकान बेचकर पत्नी के लिए कपड़े , गहने और ढ़ेर सारा पैसा लेकर रवाना हो गया।
बहु जंगल से लकड़ी काटकर लौट रही थी तब उसने धूल का गुबार उठते देखा। माता ने उसे बताया की उसका पति आ रहा है। वह घर माँ के पास जा रहा है। इसलिए वह भी घर जाये और चौक में लकड़ी का गट्ठर डाल कर आवाज लगाये – लो सासुजी लकड़ी का गट्ठर , भूसी की रोटी दो , नारियल के खोखे में पानी दो ,आज कौन मेहमान आया है। उसने ऐसा ही किया।
आवाज सुनकर उसका पति बाहर आया और अंगूठी देखकर व्याकुलता के साथ माँ से पूछा की ये कौन है ? माँ बोली ये तेरी बहु है। दिन भर घूमती रहती है। भूख लगे तो यहाँ आकर खाना खा लेती है। काम कुछ करती नहीं है। तुझे दिखाने के लिए नाटक कर रही है। उसे विश्वास नहीं हुआ और माँ से चाबी लेकर ऊपर वाली मंजिल के कमरे में अपनी पत्नी के साथ चला गया। कमरे को महंगे सामान से सजा कर महल जैसा बना दिया। दोनों सुख से रहने लगे।
बहु में अपने पति से कहा – मुझे माता का उद्यापन करना है। पति ने स्वीकृति दे दी। ख़ुशी से माता के उद्यापन की तैयारी करने लगी। जेठानी के बच्चों को खाने का न्योता दिया। उसका उद्यापन बिगड़ने के लिए जेठानी ने बच्चों से कहा की तुम खटाई मांगना। बच्चों ने वैसा ही किया पर उसने खटाई देने से मना कर दिया तो बच्चों ने पैसे मांगे जो उसने दे दिए। बच्चों ने खटाई खरीद कर खा ली। माता क्रुद्ध हो गई। सिपाही आये और उसके पति को अपने साथ ले गए। जेठानी बोली चोरी करके पैसे इकट्ठे किये है। इसलिए सिपाही पकड़कर ले गए।
बहु रोती बिलखती माता के मंदिर गई। माँ ने कहा तुमसे भूल हुई यह उसी का परिणाम है। बहु क्षमा मांग कर बोली में फिर से उद्यापन करुँगी और अब ऐसी भूल नहीं होगी। मेरे पति को वापस बुलाओ। माता ने कहा वह रास्ते में आता हुआ मिल जायेगा। उसका पति रास्ते में मिला और कहने लगा इतना धन कमाया है उसका टेक्स भरने गया था। सिपाही इसी कारण आये थे। बहु ने चैन की साँस ली।
शुक्रवार आने पर फिर से उद्यापन की तैयारी कर ली। इस बार जेठानी के बच्चों को नहीं बुलाया। पंडित के बच्चों को बुलाकर प्रेमपूर्वक भोजन कराया और केले देकर विदा किया। माता बहुत प्रसन्न हुई। कुछ समय बाद उसे बहुत सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र को लेकर रोजाना माता के मंदिर जाती थी। एक दिन माता ने सोचा आज मैं इसके घर जाकर देखती हूँ।
माता ने भयानक रूप अपनाया। गुड़ और चने से सना मुख , सूंड जैसे होंठ जिन पर मक्खियां भिनभिना रही थी। दहलीज पर पांव रखते ही उसकी सास चिल्लाने लगी। अरे देखो कोई चुड़ैल आ गई है। इसे भगाओ नहीं तो किसी को खा जाएगी। घर के सब लोग डर गए और चिल्लाने लगे। घर के खिड़की दरवाजे बंद कर दिए। छोटी बहु देखते ही पहचान गई। प्रसन्न होकर बोली – आज मेरी माता जी मेरे घर आई हैं। सास से बोली माँ जी डरो मत ये वही संतोषी माता जी हैं जिनकी मैं पूजा करती हूँ और जिनका व्रत रखती हूँ। यह कह कर उसने घर के सब खिड़की दरवाजे खोल दिए ।
सभी लोग माँ के चरणों में गिर गए । कहते हैं – माँ , हम अज्ञानी हैं। आपका व्रत भंग करके हमने जो अपराध किया है उसके लिए हमें क्षमा करो। माँ ने सभी को क्षमा करके कुशल मंगल का आशीर्वाद दिया और प्रेम पूर्वक रहने की सीख दी। सब आनंद से रहने लगे।
बहु को जैसा फल दिया संतोषी माँ सबको वैसा ही दे। जो यह कहानी पढ़े ,उसका मनोरथ पूर्ण हो।

बोलो संतोषी माता की जय !!!

गुरुवार के व्रत की कथा – Thursday Fast Story

 

किसी गांव में एक साहूकार रहता था। उसका घर धन धान्य से भरपूर था। किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। उसकी पत्नी बहुत कंजूस थी। किसी प्रकार का दान आदि नहीं करती थी। किसी भिक्षार्थी को भिक्षा नहीं देती थी। अपने काम काज में व्यस्त रहती थी। एक बार एक साधु महात्मा गुरुवार के दिन उसके द्वार पर आये और भिक्षा की याचना करने लगे। वह घर को लीप रही थी। बोली – महाराज अभी तो मैं काम में व्यस्त हूँ , आप बाद में आना। साधु महाराज खाली हाथ लौट गए।
कुछ दिन बाद वही साधु महाराज फिर भिक्षा मांगने आये। उस दिन वह अपने लड़के को खाना खिला रही थी। बोली इस समय तो में व्यस्त हूँ , आप बाद में आना। साधु महाराज फिर खाली हाथ चले गए। तीसरी बार फिर आये तब भी व्यस्त होने होने के कारण भिक्षा देने में असमर्थ होने की बात कहने लगी तो साधु महाराज बोले – यदि तुम्हारे पास समय ही समय हो , कुछ काम ना हो तब क्या तुम मुझे भिक्षा दोगी ?
साहूकारनी बोली – यदि ऐसा हो जाये तो आपकी बड़ी कृपा होगी। महात्मा बोले -मैं तुम्हे उपाय बता देता हूँ। तुम बृहस्पतिवार के दिन देर से उठना , आंगन में पौंछा लगाना। सभी पुरुषों से हजामत आदि जरूर बनवा लेने को कह देना। महिलाओं को सर धोने को और कपड़े धोने को कह देना। शाम को अँधेरा हो जाने के बाद ही दीपक जलाना। बृहस्पतिवार के दिन पीले कपड़े मत पहनना और कोई पीले रंग की चीज मत खाना।
ऐसा कुछ समय करने से तुम्हारे पास समय ही समय होगा। तुम्हारी व्यस्तता समाप्त हो जाको कह देना एगी। घर में कोई काम नहीं करना पड़ेगा। साहूकारनी ने वैसा ही किया। कुछ ही समय में साहूकार कंगाल हो गया। घर में खाने के लाले पड़ गए। साहूकारनी के पास अब कोई काम नहीं था। क्योकि घर में कुछ था ही नहीं।
कुछ समय बाद वही महात्मा फिर आये और भिक्षा मांगने लगे। साहूकारनी बोली महाराज घर में अन्न का एक दाना भी नहीं है। आपको क्या दूँ।
महात्मा ने कहा – जब तुम्हारे पास सब कुछ था तब भी तुम व्यस्त होने के कारण कुछ नहीं देती थी। अब व्यस्त नहीं हो तब भी कुछ नहीं दे रही हो। आखिर तुम चाहती क्या हो ? सेठानी हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी – महाराज मुझे क्षमा करें। मुझसे भूल हुई। आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करुँगी। कृपया ऐसा उपाय बताओ की वापस मेरा घर धान्य से भरपूर हो जाये।
महाराज बोले – जैसा पहले बताया था उसका उल्टा करना है। बृहस्पतिवार के दिन जल्दी उठना है , आंगन में पोछा नहीं लगाना है। केले के पेड़ की पूजा करनी है। पुरुषों को हजामत आदि नहीं बनवानी है। औरतें सिर ना धोये और कपड़े भी न धोये। भिक्षा दान आदि जरूर देना।
शाम को अँधेरा होने से पहले दीपक जलाना। पीले कपड़े पहनना। पीली चीज खाना। भगवान बृहस्पति की कृपा से सभी मनोकामना पूरी होंगी। सेठानी ने वैसा ही किया। कुछ समय बाद उसका घर वापस धन धान्य से भरपूर हो गया।

बुधवार के व्रत की कथा – Wednesday Fast Story

एक व्यक्ति अपनी पत्नी को विदा करवाने ससुराल गया। दो तीन दिन वहां रहने के बाद सास ससुर से विदा करने के लिए कहा। उस दिन बुधवार था। सास ससुर में तथा अन्य सम्बन्धियों ने कहा कि आज बुधवार है और बुधवार के दिन गमन नहीं करते। वह नहीं माना और उसी दिन पत्नी को विदा करवाकर अपने शहर की और रवाना हो गया। रास्ते में उसकी पत्नी ने उसे पानी लाने को कहा। वह गाड़ी से उतरकर पानी लेकर लौटा तो देखा कि उसकी पत्नी के पास बिल्कुल उसके जैसी शक्ल वाला और उसके जैसे कपड़े पहने कोई दूसरा आदमी बैठा है।
उसने गुस्से में आकर उस व्यक्ति से पूछा – ” तू कौन है और मेरी पत्नी के पास क्यों बैठा है ?
उसने जवाब दिया – ” यह मेरी पत्नी है , और मैं इसे अभी-अभी ससुराल से विदा करवाकर ला रहा हूँ ”
दोनों आपस में झगड़ा करने लगे।
झगड़ा होते देख सिपाही वहां आ गए। उन्होंने महिला से पूछा कि तुम्हारा पति कौनसा है ? उसकी पत्नी कुछ नहीं सकी। उसकी समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है ?
वह व्यक्ति भगवान से प्रार्थना करने लगा और इस अजीब सी परेशानी में मदद की गुहार करने लगा । तभी आकाशवाणी हुई की बुधवार को गमन नहीं करने की बात ना मानने के कारण यह परेशानी हुई है। तूने किसी की बात नहीं मानी। यह लीला बुधदेव भगवान की है।
उस व्यक्ति ने बुधदेव भगवान से प्रार्थना की और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। उसके हमशक्ल बनकर आये बुधदेव भगवान अंतर्ध्यान हो गए। उस व्यक्ति में चैन की साँस ली और पत्नी को सकुशल घर लेकर आया।
इसके बाद पति पत्नी नियमपूर्वक बुधवार का व्रत करने लगे।
जो व्यक्ति यह कथा सुनता है और दूसरों को सुनाता है उसे बुधवार के दिन यात्रा करने का दोष नहीं लगता और सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है।

मंगलवार के व्रत की कथा – Tuesday Fast Story

एक ब्राह्मण दंपत्ति थे। उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं था। इस वजह से दोनों दुखी रहते थे। ब्राह्मण पुत्र प्राप्ति की कामना में हनुमान जी की पूजा करने के लिए वन में चला गया। वहाँ भक्ति भाव से हनुमान जी की पूजा करने लगा। घर पर उसकी पत्नी भी पुत्र की प्राप्ति के लिए मंगलवार का व्रत करती थी। व्रत के अंत में भोजन बना कर हनुमान जी को भोग लगाने के बाद ही खुद भोजन करती थी।
एक बार किसी कारण से वह भोजन बना कर हनुमान जी को भोग नहीं लगा पाई। उसने अपने मन में प्रण किया कि अब अगले मंगलवार को हनुमान जी को भोग लगाने के बाद ही भोजन करुँगी। छः दिन तक भूखे रहने के कारण मंगलवार के दिन वह बेहोश हो गई।
हनुमान जी उसकी भक्ति , लगन और निष्ठा देखकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने प्रकट होकर दर्शन दिए और कहा – मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हे एक सुन्दर बालक देता हूँ जो तुम्हारी बहुत सेवा करेगा। हनुमान जी ने बाल रूप में दर्शन दिए और अंतर्ध्यान हो गए।
सुन्दर बालक को पाकर ब्राह्मणी बहुत प्रसन्न हुई। बालक का नाम उसमे मंगल रखा। कुछ समय बाद जब ब्राह्मण वन से वापस आया तो बालक देखकर पत्नी से पूछा कि यह बालक कौन है ? पत्नी बोली – मंगलवार के व्रत से प्रसन्न होकर हनुमान जी ने दर्शन देकर मुझे यह बालक दिया है। ब्राह्मण को विश्वास नहीं हुआ और उसने सोचा की उसकी पत्नी उससे झूठ बोल रही है और अपना व्यभिचार छुपाना चाहती है।
एक दिन ब्राह्मण कुए पर पानी भरने जा रहा था। ब्राह्मणी ने मंगल को भी साथ ले जाने को कहा। ब्राह्मण मंगल को साथ ले गया। मंगल को नाजायज समझते हुए उसने उसे धकेल कर कुए में गिरा दिया। पानी लेकर घर आ गया। ब्राह्मणी में पूछा मंगल कहाँ है। ब्राह्मण कुछ बोलता इससे पहले मंगल मुस्कराता हुआ घर में घुसा। यह देखकर ब्राह्मण आश्चर्य में पड़ गया। रात को सपने में ब्राह्मण ने हनुमान जी को देखा। वे
कह रहे थे की ये बालक मैंने दिया है , तुम्हारा पत्नी पर शक करना उचित नहीं है। वह पतिव्रता स्त्री है।
ब्राह्मण सच जानकर खुश हुआ और शर्मिंदा भी। इसके बाद ब्राह्मण दंपत्ति हर मंगलवार का व्रत निष्ठा और भक्ति के साथ करते हुआ आनंद पूर्वक जीवन लगे। अतः जो व्यक्ति मंगलवार का व्रत रखता है और मंगलवार के व्रत की कथा पढ़ता है या सुनता है तो हनुमान जी की क्रृपा से उसे सर्वसुख प्राप्त होते हैं।

वट सावित्री व्रत की कथा – Vat Savitri Vrat Katha

प्राचीन काल में अश्वपति नाम के राजा थे उनके कोई संतान नहीं थी। उन्होंने ब्रह्मा की पत्नी विधात्री की तपस्या की । विधात्री की कृपा से राजा के यहाँ सुंदर कन्या ने जन्म लिया। लड़की का नाम सावित्री रखा। सावित्री बहुत रूपवान और गुणी थी। राजा ने पंडितों से उसकी शादी की चर्चा की। पंडितों ने राजा को सलाह दी की सावित्री को खुद अपना वर चुनने की आज्ञा दें। राजा ने ऐसा ही किया।
एक बार सावित्री सत्यवान और उसके माता पिता से मिली। सत्यवान के रूप , गुण और लक्षण देखकर उसे अपना पति चुन लिया । राजा सावित्री की शादी सत्यवान से करने को तैयार हो गए । जब नारद जी को यह बात पता चली तो नारद जी ने राजा से कहा-हे राजन ! सावित्री ने जो पति चुना है वह बुद्धि में ब्रह्मा के समान , सुंदरता में कामदेव के समान , वीरता में शिव के समान और क्षमा में पृथ्वी के समान है। लेकिन वह अल्प आयु है और एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।
राजा यह जानकर बहुत दुखी हुए उन्होंने यह बात सावित्री को बताई और कोई दूसरा वर चुनने के लिए कहा । सावित्री ने कहा क्षत्राणी एक बार ही वर चुनती है और मैं सत्यवान को वर चुन चुकी हूँ। तब राजा ने सत्यवान व सावित्री का विवाह करवा दिया।

सावित्री ने ससुराल पहुंचते ही अपने नेत्रहीन सास ससुर की सेवा शुरू कर दी। बचपन से सावित्री शिव आराधना किया करती थी। उसे अपने भविष्य के बारे में मालूम था। शादी के बाद भी वह ॐ नमः शिवाय का जप करने लगी और आने वाले संकट से बचने के लिए प्रार्थना करने लगी। सपने में शिव जी ने उसे वट वृक्ष अर्थात बरगद के पेड़ की पूजा करने के लिए कहा। सावित्री ने नियम पूर्वक वट वृक्ष की पूजा आरम्भ कर दी। जब सत्यवान की मृत्यु होने में तीन दिन शेष रह गए तो उसने खाना पीना छोड़ कर कठोर व्रत किया ।
ज्येष्ठ महीने की अमावस्या वाले दिन सत्यवान जब लकड़ी काटने के लिए जंगल को जाने लगा तब सास ससुर की आज्ञा लेकर सावित्री भी साथ चली गयी। लकड़ी काटते काटते सत्यवान के सिर में दर्द होने लगा तो सावित्री बोली मेरे गोद में सिर रख कर थोड़ी देर आराम कर लीजिये। सावित्री की गोद में लेटते ही सत्यवान की मृत्यु हो गयी।
यमराज सत्यवान की आत्मा को ले जाने लगे तो व्रत के प्रभाव से सावित्री को यमराज दिखाई देने लगे। वह यमराज के पीछे-पीछे चल पड़ी। यमराज ने कहा, ” वह उनके पीछे नहीं आवे उन्हें उनका काम करने दें ” किन्तु वह बोली मैं अपने पति के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकती इसलिए मैं अपने पति के साथ चलूँगी। यमराज ने कहा की ,” तुम मेरे साथ नहीं चल सकती , सत्यवान के अलावा कोई भी वर मांग ले। सावित्री बोली मेरे सास ससुर राज्य छोड़कर अंधे होकर रहे हैं। उनकी आँखों की रौशनी और राज पाट उन्हें वापस मिले। यमराज ने “तथास्तु “कहा।
सावित्री फिर भी यमराज के पीछे चलने लगी। सावित्री बोली मै सत्यवान के बिना नहीं रह सकती। यमराज बोले सत्यवान को छोड़कर , एक वर और मांग लो। सावित्री ने कहा मेरे पिता के कोई पुत्र नहीं है। उन्हें सौ पुत्र मिलें। यमराज ने ” तथास्तु ” कह दिया।
सावित्री फिर भी यमराज के पीछे चलने लगी। यमराज क्रोध में आकर बोले दो वरदान देने के बाद भी तुम वापस नहीं लौटती। सावित्री बोली महाराज सत्यवान के बिना मेरा जीवन कुछ नहीं। इसलिए मै नही लौटी। यमराज बोले अब आखरी बार सत्यवान को छोड़कर एक वर और देता हूँ। सावित्री ने कहा मुझे सौ पुत्र और अटल राजपाट मिले। यमराज ने ” तथास्तु ” कहा और जाने लगे।
पीछे मुड़कर देखा तो सावित्री पीछे आ रही थी। गुस्से से कुपित होकर बोले अब तू नहीं लौटी तो तुझे श्राप दे दूंगा। सावित्री हाथ जोड़कर बोली महाराज एक पतिव्रता स्त्री को आपने सौ पुत्रों का वरदान दिया है। पति सत्यवान के बिना यह कैसे संभव है ? यमराज को अपनी गलती समझ आ गयी और उन्हें सत्यवान को वापस लौटाना पड़ा। सत्यवान जीवित होकर खड़े हो गए।
सावित्री और सत्यवान ने गाजे बजे के साथ वट वृक्ष की पूजा की। पत्तों के गहने बनाकर पहने तो वे हीरे मोती के हो गए। घर वापस लौटे तो देखा सास ससुर की आँखों की रोशनी वापस आ गयी थी और राजपाट भी वापस मिल गया। पिता अश्वपति के सौ पुत्र हुए। सत्यवान को राजगद्दी मिली। चारों तरफ सावित्री के व्रत की चर्चा होने लगी।
हे वट वृक्ष ! जैसा सावित्री को सुहाग और वैभव दिया वैसा हमें भी देना। कहानी कहने वाले ,सुनने वाले , हुंकारा भरने वाले को भी देना।
इसके बाद गणेश जी की कहानी सुननी चाहिए।

रविवार व्रत की कथा – Sunday Fast Story

एक वृद्धा थी। वह हर रविवार सुबह गोबर से घर को लीप कर शुध्द करती , स्नान करती , भगवान की पूजा करती , भगवान को भोग लगाती उसके बाद खुद भोजन करती थी। इससे उसे भगवान की कृपा प्राप्त थी। उसे किसी प्रकार का दुःख या तकलीफ नहीं थे और वह आनंदपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर रही थी।
उसकी पड़ोसन जिसके यहाँ से वृद्धा गोबर लाती थी उससे जलने लगी और उसने अपनी गाय को अंदर बंद कर दिया ताकि वृद्धा गोबर न ले जा सके। इस वजह से रविवार के दिन बुढ़िया अपने घर को लीप नहीं पाई । वह पूजा नहीं कर पाई , ना भोजन बना सकी , ना भगवान को भोग लगा सकी और ना ही उसने खुद भोजन किया। रात को वह भूखी ही सो गई। उसके सपने में भगवान आये और भोग ना लगाने का कारण पूछा तो उसने बताया कि गोबर नहीं मिल पाने के कारण वह भोग नहीं लगा सकी।
भगवान् बोले – हे माता तुम हर रविवार पूरा घर गोबर से लीपकर भोजन बनाकर मुझे भोग लगाने के बाद भोजन करती हो , इससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं निर्धन को धन और बाँझ स्त्रियों को पुत्र देकर उनके दुःख दूर करता हूँ। अतः मैं तुम्हे सभी इच्छाएँ पूरी करने वाली गाय दे रहा हूँ।
ऐसा कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गये।
सुबह जब वृद्धा की आँख खुली तो उसने देखा कि आँगन में अति सुन्दर गाय और बछड़ा बंधे हुए थे। यह देखकर वृद्धा बहुत खुश हुई। उसने गाय बछड़े के लिए चारे की व्यवस्था कर दी। जब पड़ोसन ने वहां गाय और बछड़ा देखे तो उसे बहुत जलन हुई। तभी उसने देखा कि गाय ने सोने का गोबर किया। वह चुपचाप जाकर सोने का गोबर उठा लाई और उसकी जगह अपनी गाय का गोबर रख आई। इस तरह वह रोजाना
वृद्धा की नजर बचाकर सोने का गोबर ले जाती।
अपने भक्त के साथ चालाकी होते देख भगवान ने जोर की आंधी चला दी। डरकर वृद्धा ने गाय और बछड़े को अंदर बांध दिया। सुबह गाय ने सोने का गोबर किया तो वह आश्चर्य पड़ गई और रोज गाय को अंदर ही बांधने लगी। इससे पड़ोसन तिलमिलाकर गई। उसे कोई रास्ता नहीं सूझा तो उसने ईर्ष्या वश राजा को शिकायत करके कहा कि ऐसी गाय तो सिर्फ राजा के पास होनी चाहिए। क्योकि राजा प्रजा की देखभाल करता है। बुढ़िया इतने सोने का क्या करेगी।
राजा ने अपने सैनिकों को उस गाय को लाने का आदेश दे दिया। वृद्धा सुबह भगवान को भोग लगाने के बाद जैसे ही भोजन करने लगी राजा के सैनिक वहां पहुँच गए और गाय बछड़े को ले गए। वृद्धा बहुत रोई गिड़गिड़ाई पड़ोसियों से मदद की गुहार की लेकिन कुछ नहीं हो सका।
वृद्धा दिन भर गाय के वियोग में रोती रही और वह भोजन भी नहीं कर पाई। रात भर भूखी प्यासी भगवान से गाय को वापस करवाने की प्रार्थना करती रही। राजा गाय को देखकर बहुत खुश हुआ। लेकिन दूसरे ही दिन उसकी ख़ुशी गायब हो गई जब उसने पाया कि सुबह दुर्गन्ध से सारा महल भर गया। गाय ने सारा महल बदबूदार गोबर से भर दिया था। राजा घबरा गया। रात को सपने में आकर भगवान ने राजा से कहा – हे राजन ! वृद्धा के रविवार के व्रत से प्रसन्न होकर मैंने उसे यह गाय दी थी। गाय उस वृद्धा को वापस लौटा देने ही तुम्हारी भलाई है।
सुबह राजा ने वृद्धा को बुलवाकर सम्मान सहित गाय बछड़ा वापस किये और साथ ही बहुत सा धन दिया तथा अपने कार्य के लिए क्षमा मांगी। राजा ने ईर्ष्यालु पड़ोसन को बुलवाकर दण्डित किया। तब जाकर राजा के महल से गन्दगी और बदबू दूर हुई। उसी दिन राजा ने नगर वासियों को राज्य की समृद्धि और समस्त मनोकामना पूर्ण करने के लिए रविवार का व्रत करने का आदेश दिया। रविवार का व्रत करने से बीमारी और प्रकृति के प्रकोप से बचे रहकर नगरवासी सुखी जीवन व्यतीत करने लगे।

पाल पथवारी और विनायक जी की कहानी

एक बार पाल माता , पथवारी माता और विनायक जी में खुद को बड़ा बताने के कारण झगड़ा हो गया। सब अपने आपको दूसरे से बड़ा साबित करने के लिए झगड़ रहे थे।एक ब्राह्मण का लड़का वहाँ से गुजर रहा था । पाल ,पथवारी व गजानन्द जी ने उसे रोका और कहा की हमारा झगड़ा सुलझाओ और न्याय करों।
ब्राह्मण का लड़का बोला कि मैं कल वापस आऊंगा तब न्याय करूँगा अभी तो मैं जा रहा हूँ। घर आकर लड़के ने माँ से कहा कि कल मुझे पाल , पथवारी व गजानन्द जी का न्याय करना हैं तो माँ ने कहा बेटा किसी को छोटा मत बताना। दूसरे दिन लड़का वहाँ गया और बोला :
~ पाल माता आप तो हर व्यक्ति से बड़ी हो , क्योंकि हर व्यक्ति आता है , स्नान ध्यान करके जाते समय पैर की ठोकर दे जाता है फिर भी आप नाराज नहीं होती हो।
~ पथवारी माता आप भी बड़े हो क्योकि कोई व्यक्ति कितने भी तीर्थ कर लें ,धर्म ध्यान कर लें पर वापस आने पर आपकी पूजा किये बिना उनका कार्य पूर्ण नहीं होता इसीलिए आप बड़ी है।
~ विनायक जी , आप तो बड़े हैं ही क्योकि सब देवो को मना ले पर आपको ध्याये बिना कोई काम सिद्ध नहीं हो सकता इसीलिए आप बड़े है।
पाल , पथवारी और विनायक जी प्रसन्न हो गए और बोले – बालक तेरी चतुरता से तूने हम सभी को बड़ा साबित कर दिया। हमारा आशीर्वाद सदा तेरे साथ रहेगा। यह कह कर उन्होंने थोड़े जौ के दाने उसके अंगोछे में डाल दिए। लड़का सोचने लगा – ये तो घाटे का सौदा रहा इतना अच्छा न्याय किया और बदले में इतने से जौ मिले। लड़के ने घर पहुँच कर बेमन से जौ वाला अंगोछा कोने में रख दिया। माँ अंगोछा समेटने लगी तो उसमें से चमचमाते हीरे मोती गिरने लगे।
माँ बोली बेटा न्याय करके में क्या लाया है। लड़का बोला माँ कोने में अंगोछे में थोड़े से जौ है , जाकर देख लो। माँ बोली उसमे से तो हीरे मोती निकल रहे हैं। लड़के ने जाकर देखा तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। लड़के को सब समझ आ गया कि ये देवताओं का ही आशीर्वाद है। उसने माँ को सारी बात बताई। दोनों बहुत खुश हुए और आनंद से रहने लगे।
हे भगवान ! पाल , पथवारी माता , विनायक जी महाराज ने जिस प्रकार ब्राह्मण के लड़के को आशीर्वाद दिया ऐसा आशीर्वाद सभी को देना।
कहानी कहने ,सुनने व हुंकार भरने वालों सबको स्वास्थ्य ,समृद्धि ,धन -धान्य देना।
बोलो , पथवारी माता की जय !!!

पथवारी की कहानी – Pathwari ki kahani

एक पाल पर पथवारी जी बैठी थी। वहां दो व्यापारी लोग आये। एक के पास नमक से भरी गाड़ी थी , वह नमक बेचता था और दूसरे के पास चीनी से भरी गाड़ी थी , वह चीनी बेचता था।
पथवारी जी ने उन दोनों से पूछा की तुम्हारे पास क्या है। दोनों ने सोचा सच कहने पर कहीं पथवारी जी मांग ना लें। इसलिए दोनों ने झूठ बोला।
चीनी वाले ने कहा – ” मेरे पास लूण है “और नमक वाले ने कहा – ” मेरे पास खांड है ”
थोड़ा आगे जाने पर उन्होंने देखा नमक की गाड़ी में नमक चीनी में बदल गया था और चीनी नमक में बदल गयी थी।
वो एक दूसरे पर चोरी का आरोप लगा कर झगड़ने लगे। रास्ते में एक सज्जन व्यक्ति मिला उसने झगड़े का कारण पूछा तो एक ने कहा – इसने मेरा लूण चुरा लिया। दूसरे ने कहा – इसमें मेरी खांड चुरा ली।
सज्जन व्यक्ति ने पूछा – क्या रास्ते में तुम्हे कोई मिला था ?
तो उन्होंने बताया कि पाल पर एक पथवारी नाम की बुढ़िया मिली थी।
इस पर सज्जन बोले की यह उसी बुढ़िया का काम लग रहा हैं तुम उसी के पास जाओ। तुम्हारा समाधान वहीं होगा। दोनों को अहसास हुआ की हमने झूठ बोला था शायद इसीलिए यह सब हुआ हैं।
दोनों पथवारी के पास गए और कहा हमने आपसे झूठ बोला हमें क्षमा कर दो हमारा सामान जैसा था वैसा ही कर दो। हम आपको लूण और खांड भेंट में भी देंगे।
पथवारी जी दोनों को क्षमा किया और सामान वापस जैसा पहले था वैसा हो गया। लूण वाले ने दो बोरी लूण भेंट किया , चीनी वाले ने दो बोरी चीनी भेंट की । उन्होंने पूरे शहर में कहलवा दिया की पथवारी जी से कोई भी झूठ नहीं बोले।
हे पथवारी माता जैसा पहले किया वैसे किसी के साथ मत करना बाद में नमक का नमक व चीनी का चीनी किया वैसे सबके करना।
कहानी कहने वाले सुनने वाले व हुंकारा भरने वाले सभी पर अपना आशीवार्द बनाये रखना।
बोलो , पथवारी माता की जय !!

शीतला माता की कहानी – Shitla mata ki Kahani

एक गाँव में बूढ़ी कुम्हारी रहती थी , जो बासोड़ा के दिन माता की पूजा करती थी और ठंडी रोटी खाती थी। उस गाँव में और ना तो कोई माता की पूजा करता था और ना ही कोई ठंडी रोटी खाता था। शीतला सप्तमी के दिन एक बुढ़िया गांव में आई और घर-घर जाकर कहने लगी –
” कोई मेरी जुएँ निकाल दो , कोई मेरी जुएँ निकाल दो ”
हर घर से यही आवाज आई –
” बाद में आना , अभी हम खाना बनाने में व्यस्त हैं ”
कुम्हारी को खाना नही बनाना था क्योंकि वह तो उस दिन ठंडा खाना खाती थी। कुम्हारी बोली – ” आओ माई , मैं तुम्हारी जुएँ निकाल देती हूँ ” कुम्हारी ने बुढ़िया की सब जुएँ निकाल दी। बुढ़िया असल में शीतला माता थी। उन्होंने खुश होकर बूढ़ी माँ को साक्षात दर्शन दिए और आशीवार्द दिया।
उसी दिन किसी कारण से पूरे गांव में आग लग गयी लेकिन कुम्हारी का घर सकुशल रहा। पूछने पर बूढ़ी माँ ने इसे शीतला माता की कृपा बताया। उसने कहा – ” बासोड़ा के दिन शीतला माता की पूजा करने और ठंडा खाना खाने से शीतला माता की कृपा से मेरा घर बच गया ”
राजा को यह पता लगने पर उसने पूरे गांव में ढिंढोरा पिटवा दिया कि –
~ सभी शीतला माता की पूजा करें ,
~ बासोड़े की पूजा करें ,
~ एक दिन पहले खाना बनाकर रख लें , दूसरे दिन पूजा करके यह ठंडा खाना खाएँ।
तभी से सारा गांव वैसा ही करने लगा।
हे शीतला माता ! जैसे कुम्हारी की रक्षा की वैसे सभी की रक्षा करना। सबके घर परिवार व बच्चो की रक्षा करना जैसा पूरा गाँव जला वैसे किसी को मत जलाना।
महाशिवरात्री व्रत कथा / कहानी – Maha Shivratri Vrat Katha
एक शिकारी था। वह शिकार करके अपने परिवार के साथ जीवनयापन करता था। एक बार जंगल में नदी किनारे शिकार करने के लिए बील के पेड़ पर मचान बनाने लगा। उस बील वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो पत्तों से ढक गया था और दिखाई नहीं दे रहा था
( बील के पत्ते शिवलिंग पर चढ़ाये जाते है ) ।
रात होने वाली थी। उसे अभी तक शिकार नहीं मिला था। वह नदी से पीने का पानी लेकर पेड़ पर चढ़ गया और शिकार का इंतजार करने लगा।
एक हिरनी पानी पीने आई। शिकारी ने तुरंत धनुष से निशाना साधा। इस हलचल में थोड़ा पानी शिवलिंग पर गिरा और कुछ बील के पत्ते भी गिरे। अनजाने ने ही शिवजी की पहले प्रहर की पूजा हो गई। हिरनी ने आवाज सुनकर देखा तो शिकारी दिखाई दिया। हिरनी ने डरते हुए कहा ” मुझे मत मारो ” शिकारी बोला कि उसका परिवार भूखा है। हिरनी ने कहा मेरे बच्चे साथ में हैं। मैं इन्हें अपने स्वामी के पास छोड़कर वापस आती हूँ। शिकारी को विश्वास नहीं हुआ। हिरनी बोली कि जिस प्रकार यह सच है कि धरती सत्य पर टिकी हुई है , समुद्र मर्यादा में रहता है तथा झरने से जल धारा नीचे ही गिरती है उतना ही सच वह बोल रही है। वह जरूर वापस आएगी | यह सुनकर शिकारी से उसे जल्दी वापस आने को कहकर जाने दिया।
थोड़ी देर बाद एक दूसरी हिरनी पानी पीने आई। शिकारी ने निशाना साधा तो फिर थोड़ा पानी और पत्ते शिवलिंग पर गिरे। और अनजाने में दूसरे प्रहर की पूजा भी हो गई। हिरनी ने शिकारी को देखा तो उसने जीवन दान देने की प्रार्थना की और कहा की वह गर्भावस्था में है अतः उसे जाने दे। बच्चा उसके स्वामी को देने के बाद वापस आने का वचन देने लगी। विश्वास ना करने पर और बोली उसे पता है कि वचन देकर पलट जाने से सारे पुण्य नष्ट हो जाते है। इसलिए वह जरूर लौटेगी। भरोसा करके शिकारी ने उसे भी जाने दिया।
कुछ देर बाद एक हिरन वहाँ आया। शिकारी ने फिर बाण चढ़ाया तो कुछ और पानी और पत्ते गिरने से तीसरे प्रहर की पूजा हो गई। हिरन ने परिवार से अंतिम बार मिलकर वापस आने की याचना की। शिकारी बोला पहले वाले भी वापस नहीं आये। तुम भी नहीं आओगे तो मेरे परिवार का क्या होगा। हिरन बोला अगर वह वापस न आये तो उसे वह पाप लगे जैसा उसको लगता है जो समर्थ होते हुए भी दूसरों की मदद नहीं करता। इस पर विश्वास करके शिकारी ने हिरन को भी जाने दिया।
रात के अंतिम प्रहर में उसने देखा की सभी हिरन हिरनी बच्चे आदि आ रहे थे। उसने खुश होकर धनुष उठाया तो जल और पत्ते फिर शिवलिंग पर गिरे तो चौथे प्रहर की पूजा हो गई। इस प्रकार चारों प्रहर की पूजा संपन्न हुई तो शिकारी के सारे पाप भस्म हो गए। उसकी अंतरात्मा जाग गई और उसका निर्दयी मन कोमल हो गया।
भगवान शंकर के प्रभाव से उसका ह्रदय परिवर्तन हो गया और वह अहिंसावादी बन गया। वह सोचने लगा की ये पशु होकर भी परोपकार करना चाहते है और मैं मनुष्य होते हुए भी कुकृत्य कर रहा हूँ। उसे बहुत ग्लानि हुई और उसने सभी हिरणों को जाने दिया। शिकारी की आँखों से अश्रु धारा निकलने लगी जो शिवलिंग पर गिर रही थी। शिव जी बहुत प्रसन्न हुए।
इस परोपकार और पूजा से भगवान शिव ने अति प्रसन्न होकर शिकारी को अपने दिव्य स्वरुप के दर्शन दिए और सुख समृध्दि का वरदान दिया। शिकारी और उसके परिवार को सुख समृद्धि और मोक्ष की प्राप्ति हुई।
इस प्रकार अनजाने में की गई पूजा से भी प्रसन्न होने वाले भोलेनाथ भगवान शिव शंकर हमेशा हम सभी के विचार और कर्म परोपकारी और उदार बनाये रखें और सभी की मनोकामनाएँ पूरी करें।

जय शिव शंकर !!!
जय भोलेनाथ !!!

गणगौर की कहानी – Gangaur ki Kahani

गणगौर की कहानी ( 1 )
राजा ने बोए जौ , चने और माली ने बोई दूब। राजा के जौ , चने बढ़ते जा रहे थे और माली की दूब घटती जा रही थी। माली को लगा कि कुछ तो गड़बड़ है। इसलिए उसने सोचा छुपकर निगाह रखनी चाहिए। जब वह छुपकर देख रहा था तो उसने देखा कि कुछ छोटी-बड़ी लड़कियां उसकी दूब तोड़ कर ले जा रही हैं। उसे बहुत गुस्सा आया उसने लड़कियों को डाँटा और उनकी चुन्नी छीन ली। लड़कियाँ माली से विनती करने लगी कि हमारी चुन्नी दे दो , और हमें दूब ले लेने दो हम यह दूब गणगौर की पूजा के लिए ले जा रहे हैं। इसके बदले गणगौर का पूजा पाटा हम तुम्हें दे देंगे।
माली ने उन्हें दूब लेने दी। गणगौर की पूजा करने के बाद लड़कियों ने पूजा पाटा माली को दे दिया और माली ने अपनी मालन को दे दिया। मालन ने पाटा ओबरी में रख दिया। शाम को माली का बेटा आया और बोला – “माँ भूख लगी हैं ” माँ ने कहा -” बेटा , ओबरी (छोटा कमरा ) में लड़कियों का पूजा पाटा रखा हैं उसमे से कुछ खा ले। माली के बेटे ने कमरा खोलना चाहा लेकिन उससे कमरा नहीं खुला। बहुत कोशिश करने के बाद भी दरवाजा नहीं खुला तो उसने गुस्से में दरवाजे पर जोर से लात मारी पर दरवाजा फिर भी नहीं खुला तो माँ बोली बेटा ! तेरे से कमरा नहीं खुलता तो पराई जाई को पता नहीं कैसे ढाबेगा।
मालन ने टीकी में से रोली निकाली ,आँखों की कोर से काजल निकाला और नखो में से मेंहदी निकाली। हथेली में लेकर सबको घोला और ओबरी(छोटा कमरा ) के छींटा दिया तो ओबरी खुल गयी। अंदर देखा तो ईशर गणगौर बैठे थे। ईसर जी ने बहुत सुंदर वस्त्र पहने हुए थे और गौरा माँग सँवार रही थी व ओबरी में अन्न के भण्डार भरे पड़े थे। माली के बेटे , मालन को तथा माली को उनके सुन्दर दर्शन हुए।
हे गणगौर माता ! जिस प्रकार माली के परिवार को दर्शन दिए उसी प्रकार सबको दर्शन देना और ईसर जी जैसा भाग और गौर जैसा सुहाग सबको देना। कहानी कहने वाले हुंकार भरने वाले सबको देना और सबको अमर सुहाग का आशीवार्द देना।
गणगौर की कहानी ( 2 )
एक बार शंकर भगवान पार्वती जी और नारद जी के साथ पृथ्वी पर घूमने आये और एक गांव में पहुँचे। उस दिन चैत्र शुक्ल की तीज थी।
जैसे ही गाँव वालो को भगवान के आने की सूचना मिली तो धनवान स्त्रियां श्रृंगार में तथा आवभगत के लिए तरह तरह के भोजन बनाने में व्यस्त हो गयी। कुछ गरीब परिवार की महिलाएं जैसी थी वैसी ही थाली में हल्दी , चावल और जल आदि लेकर आ गयी और शिव पार्वती की भक्ति भाव से पूजा करने लगी। माता पार्वती उनकी पूजा से प्रसन्न हुयी और उन सबके उपर सुहाग रूपी हरिद्रा ( हल्दी ) छिड़क दी।
इस प्रकार माँ पार्वती का आशीवार्द व मंगल कामनाए पाकर अपने अपने घर चली गयी।
कुछ देर बाद अमीर औरते भी सोलह श्रृंगार कर , छप्पन भोग सोने के थाल में सजाकर आ गयी। तब भगवान शंकर ने पार्वती जी को कहा कि सारा आशीवार्द तो तुमने पहले ही उन स्त्रियों को दे दिया अब इनको क्या दोगी ? पार्वती जी ने कहा आप उनकी बात छोड़ दें। उन्हें ऊपरी पदार्थो से निर्मित रस दिया है इसलिए उनका सुहाग धोती से रहेगा परन्तु इन लोगो को मैं अपनी अंगुली चीरकर रक्त सुहाग रस दूंगी जो मेरे समान ही सौभाग्यशाली बन जायेगी। जब कुलीन स्त्रियां शिव पार्वती की पूजा कर चुकी तब माँ पार्वती ने अपनी अंगुली चीर कर उन पर रक्त छिड़क कर अखण्ड सौभाग्य का वर दिया।
इसके बाद पार्वती जी शिव जी को कहा मै नदी मै नहाकर आती हूँ। माँ पार्वती ने नदी के किनारे जाकर बालू से शिव लिंग बनाया और आराधना करने लगी। शिव जी ने प्रसन्न होकर वरदान दिया कि आज के दिन जो भी स्त्री मेरा पूजन और तुम्हारा व्रत करेंगी उनके पति चिरंजीव रहेंगे और अंत में उन्हें मोक्ष मिलेगा। इसके बाद पार्वती जी वहाँ गयी जहाँ शिव जी व नारद को छोड़कर गयी थी।
शिव जी ने देर से आने कारण पूछा तो पार्वती जी ने बहाना बनाया और कहा कि नदी के किनारे मेरे भाई भाभी मिल गए थे। उन्होंने दूध भात खाने का आग्रह किया , इसीलिए देरी हो गई। शिव जी बोले हम भी दूध भात खाएंगे और जंगल की तरफ चल दिए पार्वती जी ने सोचा पोल खुल जाएगी वह प्रार्थना करती हुई पीछे पीछे चल दी।
जंगल में पहुँचने पर देखा सुंदर माया का महल बना हुआ था उसमें पार्वती जी के भाई और भाभी विद्यमान थे। भाई भाभी ने उन सबका स्वागत सत्कार किया और आवभगत की और वहां रुकने का आग्रह किया। तीनो ने आतिथ्य स्वीकार किया। तीन दिन वहाँ रुके फिर वहां से रवाना हो गए। तीनों चलते चलते काफी दूर तक आ गए।
शाम होने पर शिव जी पार्वती जी से बोले कि मैं अपनी माला तो तुम्हारे मायके ही भूल आया हूँ। पार्वती जी ने कहा कि मैं लेकर आती है और माला लेने जाने लगी। शिव जी बोले इस वक्त तुम्हारा जाना ठीक नहीं है। उन्होंने नारद जी को माला लेने भेज दिया। नारद जी वहाँ पहुंचे तो देखा कि वहाँ कुछ नहीं था। महल का तो नामो निशान भी नहीं था। अँधेरे में जंगली जानवर घूम रहे थे अंधकार पूर्ण वातावरण डरावना लग रहा था। यह देख कर नारद जी आश्चर्य में पड़ गए।
तभी बिजली कड़की और माला उन्हें एक पेड़ पर टंगी दिखाई दी। माला लेकर नारद जी तुरन्त वहाँ से दौड़ते हुए शिव जी के पास पहुंचे और शिव जी को वहाँ का वर्णन सुनाया। सुनकर शिवजी हँसने लगे और उन्होंने नारद जी को बताया कि पार्वती जी अपनी पार्थिव पूजा की बात गुप्त रखना चाहती थी , इसीलिए झूठा बहाना बनाया था और फिर असत्य को सत्य करने के लिए उन्होंने अपनी पतिधर्म की शक्ति से माया महल रचा था। सच्चाई बताने के लिए ही मैने तुम्हे वहाँ माला लेने भेजा था।
यह जानकर नारद जी माँ पार्वती की पतिव्रता शक्ति से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने माँ पार्वती की बहुत प्रसंशा की और पूजा करने की बात छिपाने को भी सही ठहराया क्योंकि पूजा-पाठ गुप्त रूप से पर्दे में रहकर ही करने चाहिए। उन्होंने खुश होकर कहा कि जो स्त्रियां इस दिन गुप्त रूप से पूजन कार्य करेगी उनकी सब मनोकामना पूरी होगी और उनका सुहाग अमर रहेगा।
चूँकि पार्वती जी ने व्रत छिपकर किया था अतः उसी परम्परा के अनुसार आज भी इस दिन पूजा के अवसर पर पुरुष उपस्थित नहीं रहते हैं। खरी की खोटी अधूरी की पूरी !!!
जय शिव शंकर ! जय माँ पार्वती !

तिल चौथ की कहानी – Til Chauth Ki Kahani

एक शहर में देवरानी जेठानी रहती थी । जेठानी अमीर थी और देवरानी गरीब थी। देवरानी गणेश जी की भक्त थी। देवरानी का पति जंगल से लकड़ी काट कर बेचता था और अक्सर बीमार रहता था। देवरानी जेठानी के घर का सारा काम करती और बदले में जेठानी बचा हुआ खाना, पुराने कपड़े आदि उसको दे देती थी। इसी से देवरानी का परिवार चल रहा था।
माघ महीने में देवरानी ने तिल चौथ का व्रत किया। पाँच रूपये का तिल व गुड़ लाकर तिलकुट्टा बनाया। पूजा करके तिल चौथ की कथा ( तिल चौथ की कहानी ) सुनी और तिलकुट्टा छींके में रख दिया और सोचा की चाँद उगने पर पहले तिलकुट्टा और उसके बाद ही कुछ खायेगी।
कथा सुनकर वह जेठानी के यहाँ चली गई। खाना बनाकर जेठानी के बच्चों से खाना खाने को कहा तो बच्चे बोले माँ ने व्रत किया हैं और माँ भूखी हैं। जब माँ खाना खायेगी हम भी तभी खाएंगे। जेठजी को खाना खाने को कहा तो जेठजी बोले ” मैं अकेला नही खाऊँगा , जब चाँद निकलेगा तब सब खाएंगे तभी मैं भी खाऊँगा ” जेठानी ने उसे कहा कि आज तो किसी ने भी अभी तक खाना नहीं खाया तुम्हें कैसे दे दूँ ? तुम सुबह सवेरे ही बचा हुआ खाना ले जाना।
देवरानी के घर पर पति , बच्चे सब आस लगाए बैठे थे की आज तो त्यौहार हैं इसलिए कुछ पकवान आदि खाने को मिलेगा। परन्तु जब बच्चो को पता चला कि आज तो रोटी भी नहीं मिलेगी तो बच्चे रोने लगे। उसके पति को भी बहुत गुस्सा आया कहने लगा सारा दिन काम करके भीदो रोटी नहीं ला सकती तो काम क्यों करती हो ? पति ने गुस्से में आकर पत्नी को कपड़े धोने के धोवने से मारा। धोवना हाथ से छूट गया तो पाटे से मारा। वह बेचारी गणेश जी को याद करती हुई रोते रोते पानी पीकर सो गयी।
उस दिन गणेश जी देवरानी के सपने में आये और कहने लगे ” धोवने मारी पाटे मारी सो रही है या जाग रही है ” वह बोली ” कुछ सो रही हूँ , कुछ जाग रही हूँ ”
गणेश जी बोले ,” भूख लगी हैं , कुछ खाने को दे ”
देवरानी बोली ” क्या दूँ , मेरे घर में तो अन्न का एक दाना भी नहीं हैं ”
जेठानी बचा खुचा खाना देती थी आज वो भी नहीं मिला। पूजा का बचा हुआ तिल कुट्टा छींके में पड़ा हैं वही खा लो।
तिलकुट्टा खाने के बाद गणेश जी बोले – ” धोवने मारी पाटे मारी निमटाई लगी है , कहाँ निमटे ”
वो बोली ” ये पड़ा घर , जहाँ इच्छा हो वहाँ निमट लो ”
फिर गणेश जी बोले ” अब कहाँ पोंछू :
अब देवरानी को बहुत गुस्सा आया कि कब के तंग करे जा रहे हैं , सो बोली ” मेरे सर पर पोछो और कहाँ पोछोगे ”
सुबह जब देवरानी उठी तो यह देखकर हैरान रह गई कि पूरा घर हीरे-मोती से जगमगा रहा है , सिर पर जहाँ बिंदायकजी पोछनी कर गये थे वहाँ हीरे के टीके व बिंदी जगमगा रहे थे।
उस दिन देवरानी जेठानी के काम करने नहीं गई। बड़ी देर तक राह देखने के बाद जेठानी ने बच्चो को देवरानी को बुलाने भेजा। जेठानी ने सोचा कल खाना नहीं दिया इसीलिए शायद देवरानी बुरा मान गई है। बच्चे बुलाने गए और बोले चाची चलो माँ ने बुलाया है सारा काम पड़ा हैं।
दुनियां में चाहे कोई मौका चूक जाए पर देवरानी जेठानी आपस में कहने का मौके नहीं छोड़ती।
देवरानी ने कहा ” बेटा बहुत दिन तेरी माँ के यहाँ काम कर लिया ,अब तुम अपनी माँ को ही मेरे यहाँ काम करने भेज दो ” बच्चो ने घर जाकर माँ को बताया कि चाची का तो पूरा घर हीरे मोतियों से जगमगा रहा है। जेठानी दौड़ती हुई देवरानी के पास आई और पूछा कि ये सब हुआ कैसे ? देवरानी ने उसके साथ जो हुआ वो सब कह डाला।
घर लौटकर जेठानी अपने पति से कहा कि आप मुझे धोवने और पाटे से मारो। उसका पति बोला कि भलीमानस मैंने कभी तुम पर हाथ भी नहीं उठाया। मैं तुम्हे धोवने और पाटे से कैसे मार सकता हूँ। वह नहीं मानी और जिद करने लगी। मजबूरन पति को उसे मारना पड़ा।
उसने ढ़ेर सारा घी डालकर चूरमा बनाया और छीकें में रखकर और सो गयी।
रात को चौथ विन्दायक जी सपने में आये कहने लगे , “भूख लगी है , क्या खाऊँ ”
जेठानी ने कहा ” हे गणेश जी महाराज , मेरी देवरानी के यहाँ तो आपने सूखा चूंटी भर तिलकुट्टा खाया था , मैने तो झरते घी का चूरमा बनाकर आपके लिए छींके में रखा हैं , फल और मेवे भी रखे है जो चाहें खा लीजिये ”
गणेश जी बोले ,”अब निपटे कहाँ ”
जेठानी बोली ,”उसके यहाँ तो टूटी फूटी झोपड़ी थी मेरे यहाँ तो कंचन के महल हैं जहाँ चाहो निपटो ”
फिर गणेश जी ने पूछा ,”अब पोंछू कहाँ ”
जेठानी बोली ” मेरे ललाट पर बड़ी सी बिंदी लगाकर पोंछ लो ”
धन की भूखी जेठानी सुबह बहुत जल्दी उठ गयी। सोचा घर हीरे जवाहरात से भर चूका होगा पर देखा तो पूरे घर में गन्दगी फैली हुई थी।
तेज बदबू आ रही थी। उसके सिर पर भी बहुत सी गंदगी लगी हुई थी। उसने कहा “हे गणेश जी महाराज , ये आपने क्या किया ”
मुझसे रूठे और देवरानी पर टूटे। जेठानी ने घर और की सफाई करने की बहुत ही कोशिश करी परन्तु गंदगी और ज्यादा फैलती गई। जेठानी के पति को मालूम चला तो वह भी बहुत गुस्सा हुआ और बोला तेरे पास इतना सब कुछ था फिर भी तेरा मन नहीं भरा।
परेशान होकर चौथ के बिंदायक जी ( गणेशजी ) से मदद की विनती करने लगी। बिंदायक जी ने कहा ” देवरानी से जलन के कारण तूने जो किया था यह उसी का फल है। अब तू अपने धन में से आधा उसे दे देगी तभी यह सब साफ होगा ”
उसने आधा धन बाँट दिया किन्तु मोहरों की एक हांडी चूल्हे के नीचे गाढ़ रखी थी। उसने सोचा किसी को पता नहीं चलेगा और उसने उस धन को नहीं बांटा । उसने कहा ” हे चौथ बिंदायक जी , अब तो अपना यह बिखराव समेटो ” वे बोले , पहले चूल्हे के नीचे गाढ़ी हुयी मोहरो की हांडी सहित ताक में रखी दो सुई की भी पांति कर। इस प्रकार बिंदायकजी ने सुई जैसी छोटी चीज का भी बंटवारा करवाकर अपनी माया समेटी।
हे गणेश जी महाराज , जैसी आपने देवरानी पर कृपा करी वैसी सब पर करना। कहानी कहने वाले , सुनने वाले व हुंकारा भरने वाले सब पर कृपा करना। किन्तु जेठानी को जैसी सजा दी वैसी किसी को मत देना।
बोलो गणेश जी महाराज की – जय !!!
चौथ माता की – जय !!!

गोवर्धन पर्वत की कहानी – Govardhan Parvat ki kahani

एक दिन भगवान कृष्ण ने देखा कि पूरे बृज में तरह तरह के मिष्ठान और पकवान बनाये जा रहे है। पूछने पर पता चला यह सब मेघ देवता इंद्र की पूजा के लिए तैयार हो रहा है। इंद्र प्रसन्न होंगे तभी वर्षा होगी। गायों को चारा मिलेगा , तभी वे दूध देंगी और हमारा काम चलेगा। यह सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने इंद्र की निंदा करते हुए कहा कि पूजा उसी देवता की करनी चाहिए जो प्रत्यक्ष आकर पूजन सामग्री स्वीकार करे। इंद्र में क्या शक्ति है जो पानी बरसाकर हमारी सहायता करेगा। उससे तो शक्तिशाली यह गोवर्धन पर्वत है , जो वर्षा का मूल कारण है , हमें इसकी पूजा करनी चाहिए।
इस बात की धूम मचने लगी। नन्दजी ने एक सभा बुलवाई और सबके सामने कृष्ण से पूछा कि इंद्र की पूजा से तो दुर्भिक्ष उत्पीड़न समाप्त होगा। चौमासे के सुन्दर दिन आयेंगे। गोवर्धन पूजा से क्या लाभ होगा। उत्तर में श्री कृष्ण ने गोवर्धन की बहुत प्रशंसा की और उसे गोप गोपियों का एकमात्र सहारा सिद्ध कर दिया। कृष्ण की बात से समस्त बृज मंडल प्रभावित हुआ। उन्होंने घर जाकर अनेक प्रकार के व्यंजन , मिष्ठान आदि बनाये और गोवर्धन की तराई में कृष्ण द्वारा बताई विधि से भोग लगाकर पूजा की।
भगवान की कृपा से बृज वासियों द्वारा अर्पित समस्त पूजन सामग्री और भोग गिरिराज ने स्वीकार करके खूब आशीर्वाद दिया।
सभी लोग अपना पूजन सफल समझकर प्रसन्न हो रहे थे। तभी नारद जी इंद्र महोत्सव देखने के लिए बृज आये तो उन्हें पता चला की इस बार कृष्ण के बताये अनुसार इंद्र की बजाय गोवर्धन की पूजा की जा रही है। यह सुनते ही नारद जी तुरंत इंद्र के पास पहुंचे और कहा – राजन , तुम तो यहाँ सुख की नींद सो रहे हो और उधर बृज मंडल में तुम्हारी पूजा बंद करके गोवर्धन की पूजा हो रही है। इसे इंद्र ने अपना अपमान समझा और मेघों को आज्ञा दी और कहा कि गोकुल जाकर प्रलयकारी मूसलाधार वर्षा से पूरा गांव तहस नहस कर दे।
पर्वताकार प्रलयकारी बादल , उनकी गर्जना और मूसलाधार बारिश से बृजवासी घबराकर ककृष्ण की शरण में पहुंचे। उन्होंने पूछा कि अब क्या करें। कृष्ण ने कहा तुम गायों सहित गोवर्धन की शरण में चलो वह जरूर तुम्हारी रक्षा करेगा। सारे ग्वाल बाल गोवर्धन की तराई में पहुँच गये। श्री कृष्ण ने गोवर्धन को कनीष्ठा अंगुली पर उठा लिया। सभी बृज वासी सात दिन तक उसके नीचे सुख पूर्वक रहे। उन्हें किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं हुई।
इंद्र ने पूरा जोर लगा लिया पर वह बृज वासियों का कुछ बिगाड़ नहीं पाया। भगवान की महिमा को समझकर अपना गर्व त्यागकर वह स्वयं बृज में गया और भगवान कृष्ण के चरणों में गिरकर अपनी मूर्खता पर पश्चाताप करने लगा। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रख दिया।
उन्होंने गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट हर वर्ष मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।

लक्ष्मी जी की कहानी – Laxmi ji ki kahani

एक साहूकार की एक बेटी थी। वह रोजाना पीपल के पेड़ में पानी डालने जाती थी। पीपल के पेड़ पर लक्ष्मी जी का वास था। एक दिन लक्ष्मी जी ने प्रकट होकर उससे कहा तू मेरी सहेली बन जा। वह लड़की माता पिता की आज्ञाकारी थी। उसने कहा यदि मेरे मेरे माता पिता आज्ञा दे देंगे तो मै आपकी सहेली बन जाउंगी। उसके माता पिता ने उसे आज्ञा दे दी। दोनों सहेली बन गई।
एक दिन लक्ष्मी जी ने उसे खाना खाने के लिए निमंत्रण दिया। माता पिता की आज्ञा लेकर वह लक्ष्मी जी के यहाँ जीमने चली गई। लक्ष्मी जी ने उसे शाल दुशाला भेंट किया , रूपये दिए। उसे सोने से बनी चौकी पर बैठाया। सोने की थाली , कटोरी में छत्तीस प्रकार के व्यंजन परोस कर खाना खिलाया। जब वह अपने घर के लिए रवाना होने लगी तो लक्ष्मी जी ने कहा मैं भी तुम्हारे यहाँ जीमने आऊँगी। उसने कहा ठीक है , जरूर आना।
घर आने के बाद वह उदास होकर कुछ सोच में पड़ गई । पिता ने पूछा सहेली के यहाँ जीम कर आई तो उदास क्यों हो। उसने अपने पिता को कहा लक्ष्मीजी ने उसे बहुत कुछ दिया अब वो हमारे यहाँ आएगी तो मैं उसे कैसे जिमाउंगी ,अपने घर में तो कुछ भी नहीं है।
पिता ने कहा तू चिंता मत कर। बस तुम घर की साफ सफाई अच्छे से करके लक्ष्मी जी के सामने एक चौमुखा दिया जला कर रख देना। सब ठीक होगा।
वह दिया लेकर बैठी थी। एक चील रानी का नौलखा हार पंजे में दबाकर उड़ती हुई जा रही थी। उसके पंजे से वह हार छूटकर लड़की के पास आकर गिरा। लड़की हार को देखने लगी। उसने अपने पिता को वह हार दिखाया। बाहर शोर हो रहा था की एक चील रानी का नौलखा हार उड़ा ले गई है। किसी को मिले तो लौटा दे। एक बार तो दोनों के मन विचार आया की इसे बेचकर लक्ष्मी जी के स्वागत का प्रबंध हो सकता है।
लेकिन अच्छे संस्कारों की वजह से पिता ने लड़की को कहा यह हार हम रानी को लौटा देंगे। लक्ष्मी जी के स्वागत के लिए धन तो नहीं पर हम पूरा मान सम्मान देंगे।
उन्होंने हार राजा को दिया तो राजा ने खुश होकर कहा जो चाहो मांग लो। साहूकार ने राजा से कहा की बेटी की सहेली के स्वागत के लिए शाल दुशाला , सोने की चौकी , सोने की थाली कटोरी और छत्तीस प्रकार के व्यंजन की व्यवस्था करवा दीजिये। राजा ने तुरंत ऐसी व्यवस्था करवा दी। लड़की ने गणेश और लक्ष्मी जी दोनों को बुलाया। लक्ष्मी जी को सोने की चौकी पर बैठने को कहा। लक्ष्मी जी ने कहा की मैं तो किसी राजा महाराजा की चौकी पर भी नहीं बैठती। लड़की ने कहा मुझे सहेली बनाया है तो मेरे यहाँ तो बैठना पड़ेगा।
गणेश और लक्ष्मी जी दोनों चौकी पर बैठ गए। लड़की ने बहुत आदर सत्कार के साथ और प्रेम पूर्वक भोजन करवाया। लक्ष्मी जी बड़ी प्रसन्न हुई। लक्ष्मी जी ने जब विदा मांगी तो लड़की ने कहा अभी रुको मैं लौट कर आऊं तब जाना ,और चली गई। लक्ष्मी जी चौकी पर बैठी इंतजार करती रही। लक्ष्मी जी के वहाँ होने से घर में धन धान्य का भंडार भर गया। इस प्रकार साहूकार और उसकी बेटी बहुत धनवान हो गए।
हे लक्ष्मी माँ। जिस प्रकार आपने साहूकार की बेटी का आतिथ्य स्वीकार करके भोजन किया और उसे धनवान बनाया। उसी प्रकार हमारा भी आमंत्रण स्वीकार करके हमारे घर पधारें और हमें धन धान्य से परिपूर्ण करें।
जय लक्ष्मी माँ , तेरी कृपा हो , तेरी जय हो।

नरक चौदस की कहानी – Narak Chaudas Ki Kahani

प्राचीन समय की बात है। रन्तिदेव नामक का एक राजा था। वह पहले जन्म में बहुत धर्मात्मा एवं दानी था। दूर दूर तक उसकी बहुत ही ख्याति थी। अपने पूर्व जन्म के कर्मो की वजह से वह इस जन्म में भी अपार दान आदि देकर बहुत से सत्कार्य किये। दान धर्म करके सबका भला करता था। जरुरत मन्दो को कभी भी निराश नहीं होने देता था।
कुछ समय पश्चात राजा बूढ़ा हो गया ,उनके अंत समय में यमराज के दूत लेने आये। राजा को देखकर डराकर घूरते हुए कहा राजन ! राजन तुहारा समय समाप्त हो गया अब तुम नरक में चलो। तुम्हे वही चलना पड़ेगा।
राजा ने सोचा भी नहीं था कि उसे नरक जाना पड़ेगा। राजा ने घबराकर यमदूतो से नरक ले जाने का कारण पूछाऔर कहा की मैंने तो आजीवन दान धर्म किये सत कर्म किये तो यम के दूतो ने कहा राजा आपने जो दान धर्म किये वह तो दुनिया जानती है किंतु आपके पाप कर्म केवल भगवान और धर्मराज ही जानते हैं।
राजा बोला मेरी आपसे विनती है की आप मेरे पाप कर्म मुझे भी बताने की कृपा करे। तब यमदूत बोले की –एक बार तुम्हारे द्वार से भूखा ब्राह्मण बिना कूछ पाए वापस लौट गया था। वह बहुत ही आशा के साथ तुम्हारे पास आया था। इसीलिये तुम्हे नरक जाना पड़ेगा।राजा ने विनती की और कहा – मुझे इस बात का ज्ञान नहीं था। मुझसे भूल बहुत बड़ी भूल हो गई।
कृपा करके मेरी आयु एक वर्ष बढ़ा दीजिये । ताकि मैं भूल सुधार सकूँ। यमदूतो ने बिना सोचे समझे हाँ कर दी और राजा की आयु एक वर्ष बढ़ा दी। यमदूत चले गए।
राजा ने ऋषि मुनियो के पास जाकर पाप मुक्ति के उपाय पूछे। ऋषियों ने बताया की हे राजन !तुम कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को व्रत रखना और भगवान कृष्ण का पूजन करना ,ब्राह्मण को भोजन कराना तथा दान देकर सब अपराध सुनाकर क्षमा माँगना तब तुम पाप मुक्त हो जाओगे। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी आने पर राजा ने नियम पूर्वक व्रत रखा और श्रद्धा पूवर्क ब्राह्मण को भोजन कराया।
अंत में राजा को विष्णुलोक की प्राप्ति हुई।

धनतेरस की कहानी

एक बार भगवान विष्णु मृत्यु लोक के भ्रमण हेतु जाने लगे तो लक्ष्मी जी भी साथ जाने की जिद करने लगी। विष्णु भगवान ने कहा मुझे तो सृष्टि के पालन हेतु जाना है। आप चलकर क्या करोगी। लक्ष्मी जी नहीं मानी और साथ में चली गई। घुमते हुए कुछ देर बाद विष्णु जी ने लक्ष्मी जी से कहा कि मैं किसी काम से दक्षिण दिशा की ओर जा रहा हूँ तुम उधर मत देखना । यह कह कर भगवान चले गए।
समय बिताने के लिए लक्ष्मी जी पास के सरसों के खेत से फूल तोड़कर श्रृंगार करने लगी और गन्ना तोड़कर खाने लगी।
विष्णु जी वापस आये तो लक्ष्मी जी को गन्ना खाते देख क्रोधित होकर बोले – बिना पूछे गन्ना तोड़कर खाने के कारण तुम खेत के किसान की बारह वर्ष तक सेवा करो। ऐसा कह कर भगवान क्षीर सागर में विश्राम करने चले गए। इधर लक्ष्मी जी ने किसान के घर चली गई और उसका घर धन धान्य से सम्पन्न कर दिया।
बारह वर्ष के बाद विष्णु जी लक्ष्मी जी को लेने आये। लक्ष्मी जी उनके साथ वापस जाने लगी तो किसान ने रोक लिया। तब भगवान ने किसान को कुछ कौड़ियां देकर कहा – तुम परिवार सहित गंगा में जाकर स्नान करो और और इन कौड़ियों को जल में छोड़ देना।
जब तक तुम नहीं लौटोगे हम यही तुम्हारा इंतजार करेंगे। किसान मान गया।
किसान गंगा स्नान के लिए चला गया। किसान ने जैसे ही गंगा स्नान करके कौड़ियां जल में डाली वैसे ही पानी में से चार हाथ निकले और कौड़ियां लेकर चले गए। किसान ने आश्चर्य से देखा और गंगा जी से पूछा ये चार भुजाएं किसकी थी ? तो गंगा जी बोली हे किसान ! वे चारो हाथ मेरे ही थे , तूने जो कौड़ियां भेंट की वह तुझे किसने दी ? किसान बोला मेरे घर एक महापुरुष आये हुए है उन्होंने दी है।
गंगा जी बोली तुम्हारे घर महापुरुष आये है वो विष्णु भगवान है और जो स्त्री है वह लक्ष्मी जी है। तुम लक्ष्मी जी को मत जाने देना अन्यथा तुम पहले की भांति निर्धन हो जाओगे। किसान वापस लौट कर आया तो भगवान कहने लगा मैं लक्ष्मी जी को वापस नहीं जाने दूँगा। तब भगवान ने समझाया कि बिना पूछे गन्ना खाने के कारण गुस्से में मैंने इन्हें श्राप दिया था इस वजह से इन्हें तुम्हारे साथ रही। लक्ष्मी वैसे भी चंचला हैं। ये एक जगह नहीं टिकती। बड़े बड़े राजा महाराजा भी इनको नहीं रोक सकते ।
किसान हठ करने लगा तो लक्ष्मी जी ने कहा की हे किसान !यदि तुम मुझे रोकना चाहते हो तो सुनो। कल धनतेरस है , तुम अपना घर स्वच्छ रखना ,रात्रि में घी का दीपक जला कर रखना ,तब मैं तुम्हारे घर आउंगी। उस समय तुम मेरी पूजा करना मैं तुम्हे दिखाई नहीं दूँगी। किसान ने कहा ठीक है मैं ऐसा ही करूँगा। यह सुनते ही लक्ष्मी जी दसों दिशाओं में फैल गयी ,भगवान देखते ही रह गए। दूसरे दिन किसान ने लक्ष्मी जी के कहे अनुसार पूजन किया। उसका घर धन धान्य से पूर्ण हो गया। उस दिन से वह हर वर्ष धनतेरस के दिन माँ लक्ष्मी का पूजन करने लगा। उस किसान की तरह सभी लोग धन तेरस के दिन पूजा करने लगे।
हे माँ लक्ष्मी! ने जैसे किसान पर कृपा बरसाई वैसे ही सब पर बरसाना।

। । जय हो लक्ष्मी माता । ।

तुलसी माता की कहानी – Tulsi Mata Ki Kahani

कार्तिक महीने में सब औरते तुलसी माता को सींचने जाती थी । सब तो सींच कर आती परन्तु एक बूढ़ी माई आती और कहती कि हे तुलसी माता ! सत की दाता , मैं बिलड़ा सींचूं तेरा , तू कर निस्तारा मेरा , तुलसी माता अड़ुआ दे लडुआ दे ,पीताम्बर की धोती दे , मीठा मीठा गास दे , बैकुंठ का वास दे , चटके की चाल दे , पटके की मौत दे , चन्दन की काठ दे , झालर की झनकार दे , साई का राज दे , दाल भात का जीमन दे , ग्यारस की मौत दे , श्रीकृष्ण का कांधा दे।
यह बात सुनकर तुलसी माता सूखने लगी तो भगवान ने पूछा हे तुलसी ! तुम क्यों सूख रही हो ? तुम्हारे पास इतनी औरतें रोज आती है , तुम्हे मीठा भोग लगाती है , गीत गाती है। तुलसी माता ने कहा एक बूढ़ी माई रोज आती है और इस तरह की बात कह जाती है। मैं सब बात तो पूरी कर दूंगी पर कृष्ण का कन्धा कहाँ से दूंगी। भगवान बोले – वह मरेगी तो कन्धा मैं दे आऊंगा।
कुछ समय पश्चात बूढ़ी माई का देहांत हो गया। सारे गाँव वाले एकत्रित हो गए और बूढ़ी माई को ले जाने लगे तो वह इतनी भारी हो गयी की किसी से भी नहीं उठी सबने कहा इतना पूजा पाठ करती थी , पाप नष्ट होने की माला फेरती थी , फिर भी इतनी भारी कैसे हो गयी।
बूढ़े ब्राह्मण के रूप में भगवान वहाँ आये और पूछा ये भीड़ कैसी हैं ? तब वहाँ खड़े लोग बोले ये बूढ़ी माई मर गयी है। पापिन थी इसीलिए भारी हो गयी है किसी से भी उठ नहीं रही है तो भगवान ने कहा मुझे इसके कान में एक बात कहने दो शायद उठ जाये।
भगवान ने बूढ़ी माई के पास जाकर कान में कहा कि बूढ़ी माई मन की निकाल ले , अड़ुआ ले गडुआ ले , पीताम्बर की धोती ले , मीठा मीठा ग्रास ले , बैकुण्ठ का वास ले , चटक की चाल ले, चन्दन की काठ ले , झालर की झंकार , दाल भात का जीमन ले और कृष्ण का कांधा ले।
इतना सुनना था की बुढ़िया हल्की हो गयी भगवान अपने कंधे पर ले गए और बुढ़िया को मुक्ति मिल गयी।
हे तुलसी माता ! जैसी मुक्ति बूढ़ी माई की करी वैसी ही हमारी भी करना और जैसे उसको कन्धा मिला वैसे सभी को देना।

करवा चौथ की कहानी – Karwa Chauth Ki Kahani
वीरवती की कहानी – Veervati ki kahani

बहुत समय पहले की बात हैं वीरवती (Veervati ) नाम की एक राजकुमारी थी। जब वह बड़ी हुई तो उसकी शादी एक राजा से हुई। शादी के बाद वह करवा चौथ का व्रत करने के लिए माँ के घर आई। वीरवती ने भोर होने के साथ ही करवा चौथ का व्रत शुरू कर दिया।
वीरवती बहुत ही कोमल व नाजुक थी। वह व्रत की कठोरता सहन नहीं कर सकी। शाम होते होते उसे बहुत कमजोरी महसूस होने लगी और वह बेहोश सी हो गई। उसके सात भाई थे और उसका बहुत ध्यान रखते थे। उन्होंने उसका व्रत तुड़वा देना ठीक समझा। उन्होंने पहाड़ी पर आग लगाई और उसे चाँद निकलना बता कर वीरवती का व्रत तुड़वाकर भोजन करवा दिया ।
जैसे ही वीरवती ( Veervati ) ने खाना खाया उसे अपने पति की मृत्यु का समाचार मिला। उसे बड़ा दुःख हुआ और वह पति के घर जाने के लिए रवाना हुई। रास्ते में उसे शिवजी और माता पार्वती मिले। माता ने उसे बताया कि उसने झूठा चाँद देखकर चौथ का व्रत तोड़ा है। इसी वजह से उसके पति की मृत्यु हुई है। वीरवती अपनी गलती के लिए क्षमा मांगने लगी। तब माता ने वरदान दिया कि उसका पति जीवित तो हो जायेगा लेकिन पूरी तरह स्वस्थ नहीं होगा।
वीरवती Veervati जब अपने महल में पहुंची तो उसने देखा राजा बेहोश था और शरीर में बहुत सारी सुइयां चुभी हुई थी। वह राजा की सेवा में लग गई। सेवा करते हुए रोज एक एक करके सुई निकालती गई। एक वर्ष बीत गया। अब करवा चौथ के दिन बेहोश राजा के शरीर में सिर्फ एक सुई बची थी।
रानी वीरवती Rani Veervati ने करवा चौथ का कड़ा व्रत रखा। वह अपनी पसंद का करवा लेने बाजार गई। पीछे से एक दासी ने राजा के शरीर से आखिरी सुई निकाल दी। राजा को होश आया तो उसने दासी को ही रानी समझ लिया। जब रानी वीरवती वापस आई तो उसे दासी बना दिया गया। तब भी रानी ने चौथ के व्रत का पालन पूरे विश्वास से किया।
एक दिन राजा किसी दूसरे राज्य जाने के लिए रवाना हो रहा था। उसने दासी वीरवती से भी पूछ लिया कि उसे कुछ मंगवाना है क्या। वीरवती ने राजा को एक जैसी दो गुड़िया लाने के लिए कहा। राजा एक जैसी दो गुड़िया ले आया।
वीरवती हमेशा गीत गाने लगी
” रोली की गोली हो गई …..गोली की रोली हो गई “
( रानी दासी बन गई , दासी रानी बन गई )
राजा ने इसका मतलब पूछा तो उसने अपनी सारी कहानी सुना दी । राजा समझ गया और उसे बहुत पछतावा हुआ। उसने वीरवती veervati को वापस रानी बना लिया और उसे वही शाही मान सम्मान लौटाया।
माता पार्वती के आशीर्वाद से और रानी के विश्वास और भक्ति पूर्ण निष्ठा के कारण उसे अपना पति और मान सम्मान वापस मिला।
चौथ माता की जय !!!

करवा चौथ की कहानी Karwa Chauth Ki Kahani ( 2 )

एक गाँव में एक साहूकार के सात बेटे और एक बेटी थी। सातों भाई और बहन में बहुत प्यार था। करवा चौथ के दिन सेठानी ने सातों बहुओं और बेटी के साथ करवा चौथ का व्रत रखा । सातों भाई हमेशा अपनी बहन के साथ ही भोजन करते थे। उस दिन भी भाईयो ने बहन को खाने के लिए बोला तो बहन बोली मेरा आज करवा चौथ का व्रत है इसीलिए चाँद उगेगा तब ही खाना खाऊँगी।
भाईयों ने सोचा कि बहन भूखी रहेगी इसलिए एक भाई ने दिया लिया और एक भाई चलनी लेकर पहाड़ी पर चढ़ गया। दिया जलाकर चलनी से ढक कर कहा कि बहन चाँद उग गया है अरग देकर खाना खा लो। बहन ने भाभीयों से कहा कि भाभी चाँद देख लो। भाभी बोली कि बाई जी ये चाँद तो आपके लिए उगा हैं आप ही देख लो हमारा चाँद तो देर रात को उगेगा। बहन भाईयों के साथ खाना खाने बैठ गयी।
भोजन का पहला कौर खाने लगी तो उसमें बाल आ गया , दूसरा कौर खाने लगी तो उसमें कंकर आ गया तीसरा कौर खाने लगी तो ससुराल से बुलावा आ गया कि – बेटा बहुत बीमार है , बहु को जल्दी भेजो। माँ ने बेटी के कपड़े निकालने के लिए तीन बार बक्सा खोला तो तीनो बार ही सफ़ेद कपड़े हाथ में आये । लड़की सफ़ेद कपड़े ही पहन कर ससुराल के लिए रवाना होने लगी। माँ ने सोने का एक सिक्का उसकी साड़ी के पल्लू में बांध दिया और कहा – रास्ते में सबके पैर छूते हुए जाना और जो अमर सुहाग का आशीर्वाद दे उसे यह सिक्का देकर पल्लू में गांठ बांध देना।
रास्ते में बहुत लोगों ने आशीष दिए पर अमर सुहाग का आशीवार्द किसी ने भी नहीं दिया। ससुराल पहुँचने पर उसने देखा की पलने में जेठूति ( जेठ की लड़की ) झूल रही थी। उसके पैर छूने लगी तो वह बोली –
” सीली हो सपूती हो , सात पूत की माँ हो “
यह आशीष सुनते ही उसने सोने का सिक्का निकालकर उसे दे दिया और पल्ले से गाँठ बांध ली।
घर के अंदर प्रवेश किया तो कमरे में पति को मृत अवस्था में पाया । उसने पति को ले जाने नहीं दिया , वह अपने मृत पति को लेकर रहने लगी और पति की सेवा करती रही। सासु बचा हुआ ठंडा बासी खाना नोकरानी के हाथ यह कह कर भिजवाती कि जा मुर्दा सेवनी को खाना दे आ। कुछ दिन बाद माघ महीने की तिल चौथ आई तो उसने माता से प्रार्थना की और कहा – माता , मुझे मेरी गलती का पश्चाताप है। मुझे
माफ़ कर दो। हे चौथ माता ! मेरा सुहाग मुझे लौटा दो। मेरे पति को जीवित कर दो।
माता ने कहा – ये मेरे हाथ में नहीं वैशाखी चौथ माता तुम्हारा सुहाग लौटाएगी। वैशाखी चौथ पर उसने फिर प्रार्थना की तो माँ ने कहा – भादुड़ी चौथ माता तुम्हारा सुहाग तुम्हे देगी। भादुड़ी चौथ माता से प्रार्थना करने पर उन्होंने कहा – सबसे बड़ी कार्तिक चौथ माता की नाराजगी के कारण तुम्हारे साथ यह हो रहा है। उन्हें प्रसन्न करने पर ही तुम्हे जो चाहिए वह मिलेगा।
कार्तिक महीने में चौथ माता स्वर्ग से उतरी तो गुस्से में उससे कहने लगी –
” भाइयों की बहन करवा ले , दिन में चाँद उगानी करवा ले , व्रत भांडणी करवा ले “
उसने चौथ माता के पैर पकड़ लिए और विलाप करने लगी – हे चौथ माता ! मैं नासमझ थी इसलिए मुझसे भूल हुई। मुझे इतना बड़ा दंड मत दो। आप जग की माता है। सबकी इच्छा पूरी करने वाली है। मेरी बिगड़ी बनाओ माँ , मेरा सुहाग लौटा दो। मेरे पति को जीवित कर दो । माता ने खुश होकर उसे अमर सुहाग का आशीर्वाद दे दिया।
उसका पति उठा और बोला मुझे तो बहुत नींद आयी। तब उसने अपने पति को बताया कि वह बारह महीने से उसकी सेवा कर रही थी और चौथ माता ने उसका सुहाग उसे लौटाया है। पति ने कहा -हमें चौथ माता का उद्यापन करना चाहिए। उसने चौथ माता की कहानी सुनी और उद्यापन कर चूरमा बनाया। दोनों खा पीकर चौपड़ खेलने लगे। नोकरानी खाना लेकर आई तो यह देखकर तुरंत जाकर उसकी सासु को बताया। सासु ने आकर देखा तो बहुत खुश हुई। बहु से पूछा यह सब कैसे हुआ। बहु ने साहू के पैर छुए और बताया की यह चौथ माता का आशीर्वाद है।
सभी लोग चौथ माता की कृपा देखकर बहुत खुश हुए। सभी स्त्रियों ने पति की दीर्घायु के लिए चौथ माता का व्रत करने का निश्चय किया।
हे चौथ माता ! जैसा साहूकार की बेटी का सुहाग अमर किया वैसा सभी का करना। कहने सुनने वालों को , हुंकारा भरने वालोँ को सभी को
अमर सुहाग देना।
बोलो – मंगल करणी दुःख हरणी चौथ माता की जय !

 

विनायक जी की कहानी

उस समय की बात है जब भगवान विष्णु जी की शादी लक्ष्मी जी से तय हुई थी । शादी की खूब तैयारियां की गई। चारो और हर्षो उल्लास का वातावरण था। सारे देवी -देवता को बारात में चलने के लिए निमंत्रण दिया गया।
सारे देवी -देवता आये तो सब भगवान विष्णु से कहने लगे की गणेश जी को नहीं ले जायेंगे। वे बहुत मोटे हैं वो तो बहुत सारा खाते है।
दूंद दूछल्या , सूंड सून्डयाला , ऊखल से पाँव , छाजले से कान , मोटा मस्तक वाले है। इनको साथ ले जाकर क्या करेंगे , यही रखवाली के लिए छोड़ जाते हैं और विनायक जी को छोड़कर वे सब बारात में चले गए है।
इधर नारद जी ने गणेश जी को भड़का दिया ओर कहा की आज तो महाराज ने आपका बहुत बड़ा अपमान किया है। आप से बारात बुरी लगती इसीलिए आपको साथ नहीं ले गए और छोड़ कर चले गए । गणेश जी को क्रोध आ गया और उन्होंने चूहों की आज्ञा दी की सारी जमीन खोखली कर दे। धरती थोथी हो गयी इससे भगवान के रथ के पहिये धंस गए।
बहुत कोशिश करके सब परेशान हो गए किसी भी तरह से पहिये नहीं निकले तो खाती को बुलाया। खाती आया सारा दृश्य देखा और पहिये को हाथ लगा कर बोला ” जय गजानन्द जी ” और इतने में तुरन्त रथ निकल गया। सब देखते रह गए। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने पूछा कि तुमने गजानन्द जी को क्यों याद किया। खाती बोला ” गणेश जी को सुमरे बिना कोई काम सिद्ध नहीं होता ” जो भी सच्चे मन से गजानन्द जी को याद करता है उसके सब काम बड़ी आसानी से सिद्ध हो जाते है।
सब सोचने लगे हम तो गणेश जी को ही छोड़ आये। उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और एक जने को भेज कर गणेश जी को बुलवाया व गणेश जी से माफ़ी माँगी और पहले गणेश जी का रिद्धि -सिद्धि से विवाह करवाया फिर भगवान विष्णु का लक्ष्मी जी के साथ हुआ। सभी बहुत ही खुश थे तभी से कोई भी शुभ काम शुरू करने से पहले बिंदायक जी का स्मरण किया जाता है।
जैसे भगवान का काम सिद्ध किया वैसे सबका सिद्ध करना।
बोलो विनायक जी की जय !

 

आंवला नवमी की कहानी

एक राजा था। वह रोज सवा मन आँवले दान करके ही खाना खाता था। यह उसका प्रण था। इससे उसका नाम आँवलया राजा पड़ गया।
एक दिन उसके बेटे बहू ने सोचा कि राजा इतने सारे आंवले रोजाना दान करते हैं , इस प्रकार तो एक दिन सारा खजाना खाली हो जायेगा।
इसीलिए बेटे ने राजा से कहा की उसे इस तरह दान करना बंद कर देना चाहिए।
बेटे की बात सुनकर राजा को बहुत दुःख हुआ और राजा रानी महल छोड़कर बियाबान जंगल में जाकर बैठ गये। राजा रानी आँवला दान नहीं कर पाए और प्रण के कारण कुछ खाया नहीं। जब भूखे प्यासे सात दिन हो गए तब भगवान ने सोचा कि यदि मैने इसका प्रण नहीं रखा और इसका सत नहीं रखा तो विश्वास चला जायेगा ? इसलिए भगवान ने, जंगल में ही महल, राज्य और बाग -बगीचे सब बना दिए और ढेरों आँवले के पेड़ लगा दिए। सुबह राजा रानी उठे तो देखा की जंगल में उनके राज्य से भी दुगना राज्य बसा हुआ है।
राजा रानी से कहने लगा –
रानी देख कहते हैं , सत मत छोड़े।
सूरमा सत छोड़या पत जाये,
सत की छोड़ी लक्ष्मी फेर मिलेगी आय।
आओ नहा धोकर आँवले दान करे और भोजन करे। राजा रानी ने आँवले दान करके खाना खाया और खुशी- खुशी जंगल में रहने लगे।
उधर आंवला देवता का अपमान करने व माता पिता से बुरा व्यवहार करने के कारण बहु बेटे के बुरे दिन आ गए। राज्य दुश्मनो ने छीन लिया दाने-दाने को मोहताज हो गए और काम ढूंढते हुए अपने पिताजी के राज्य में आ पहुँचे। उनके हालात इतने बिगड़े हुए थे कि पिता ने उन्हें बिना पहचाने हुए काम पर रख लिया। बेटे बहु सोच भी नहीं सकते कि उनके माता-पिता इतने बड़े राज्य के मलिक भी हो सकते है सो उन्होंने भी अपने माता-पिता को नहीं पहचाना।
एक दिन बहु ने सास के बाल गूँथते समय उनकी पीठ पर मस्सा देखा। उसे यह सोचकर रोना आने लगा की ऐसा मस्सा मेरी सास के भी था।
हमने ये सोचकर उन्हें आँवले दान करने से रोका था की हमारा धन नष्ट हो जायेगा। आज वे लोग न जाने कहाँ होगे ? यह सोचकर बहु को रोना आने लगा और आँसु टपक टपक कर सास की पीठ पर गिरने लगे। रानी ने तुरन्त पलट कर देखा और पूछा की , तू क्यों रो रही है ?
उसने बताया आपकी पीठ जैसा मस्सा मेरी सास की पीठ पर भी था। हमने उन्हें आँवले दान करने से मना कर दिया था इसलिए वे घर छोड़कर कही चले गए। तब रानी ने उन्हें पहचान लिया। सारा हाल पूछा और अपना हाल बताया। अपने बेटे बहू को समझाया की दान करने से धन कम नहीं होता बल्कि बढ़ता है। बेटे बहु भी अब सुख से राजा रानी के साथ रहने लगे।
हे भगवान ! जैसा राजा रानी का सत रखा वैसा सबका सत रखना। कहते सुनते सारे परिवार का सुख रखना।
इस कहानी के बाद बिंदायक जी की कहानी सुनते है।

 

शरद पूर्णिमा की कहानी – Sharad Poornima Ki Kahani

एक साहूकार था उसके दो बेटिया थी। वह दोनों पूर्णिमा का व्रत करती थी। बड़ी बेटी व्रत पूरा करती थी ओर छोटी बेटी अधूरा करती थी।
साहूकार ने दोनों बेटियो का धूमधाम से विवाह किया। कुछ समय पश्चात दोनों गर्भवती हुई और दोनों ने बच्चो को जन्म दिया परन्तु छोटी बेटी के संतान होते ही मर गयी। इसके बाद भी छोटी बेटी के जब भी संतान होती , होते ही मर जाती थी।
छोटी बेटी संतान की मृत्यु से बहुत दुखी हो गयी उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो पंडितो ने बताया की तुम अधूरा व्रत करती हो जिसके कारण तुम्हारी संतान नहीं बचती हैं। अगर तुम पूर्णिमा का पूरा व्रत विधि पूर्वक करोगी तो तुम्हारी संतान जीवित रहेगी।
पंडितो के कहे अनुसार उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत विधि पूर्वक किया । इससे उसे लड़का हुआ परंतु तुरन्त ही मर गया। उसने लड़के को पीढ़े पर लेटाया और चादर से उड़ा कर अपनी बड़ी बहन के पास गयी और उसे बुला कर लायी। बहन को उसी पीढ़े पर बैठने को कहा । बहन जैसे ही पीढ़े पर बैठने लगी तो उसका घाघरा बच्चे को छू गया ,घाघरा छूते ही बच्चा जीवित हो गया और रोने लगा।
तब बड़ी बहन छोटी बहन से बोली –“तू मुझ पर कलंक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता। “तब छोटीबहन बोली ,”यह तो पहले से ही मृत था। तेरे पुण्य से जीवित हो गया। तेरे भाग्य से इसका पुनर्जीवन हुआ हैं। ”

बच्चे की आवाज़ सुनकर छोटी बहन बहुत खुश हुई उसने अपनी बड़ी बहन से कहा की तू पूरा व्रत करती थी और मैं अधूरा व्रत करती थी इसीलिए तेरे ऊपर हमेशा भगवान की कृपा हुई और मैं हमेशा अधूरा व्रत करती थी इसीलिये मुझे दोष लगा और मेरी संतान जीवित नहीं रहती थी।
आज तेरे भाग्य से मेरी संतान जीवित हो गयी अतः उसने पूरे गाँव में ढिंढोरा पिटवा दिया की जो कोई भी व्रत करे वह पूरा व्रत करे अधूरा न करे।

ऋषि पंचमी व्रत की कथा कहानी ( 1 )
Rishi Panchami Vrat Katha Kahani

किसी गाँव में एक सदाचारी ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ रहता था। उनके परिवार में एक पुत्र और एक पुत्री थे। ब्राह्मण ने अपनी कन्या पुत्री की शादी अच्छे घर में कर दी , परंतु थोड़े समय बाद ही उस कन्या के पति की अकाल मृत्यु हो गयी। विधवा होने के बाद वह अपने पिता के घर लौट आई। ब्राह्मण दंपत्ति विधवा पुत्री सहित कुटिया बना कर गंगा तट पर रहने लगे।
एक दिन विधवा पुत्री के शरीर पर बहुत सारे कीड़े पैदा हो गए। उसने अपनी माँ को कीड़ों के बारे माँ बताया। माता पिता बहुत दुखी हुए और इसका कारण और उपाय जानने के लिए एक ऋषि के पास गए। ऋषि ने अपनी विद्या से उस कन्या के पिछले जन्म का पूरा विवरण देखा ।
ऋषि ने बताया कि यह कन्या पिछले जन्म में एक ब्राह्मणी थी। रजस्वला होने पर भी इसने घर के रसोई के सामान छुए थे और घर के सभी काम किये थे।। शास्त्रों के अनुसार रजस्वला स्त्री को किसी प्रकार का काम नहीं करना चाहिए लेकिन कन्या ने सारे काम किये।
इस जन्म में भी इसने ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया इसीलिए इसे दंड भुगतना पड़ रहा है। उसी पाप के कारण इसके शरीर पर कीड़े पड़ गए है उपाय पूछने पर ऋषि ने कहा कि यदि कन्या ऋषि पंचमी का व्रत और पूजा , भक्ति भाव से करे तथा क्षमा प्रार्थना करे तो इस पाप से मुक्ति संभव है। इससे अगले जन्म में भी इसे अटल सौभाग्य प्राप्त होगा।
कन्या ने विधि विधान से ऋषि पंचमी का व्रत और पूजन किया। जिससे उसका दुःख दूर हो गया। अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य और धन धान्य आदि सभी सुख प्राप्त हुए।

 

ऋषि पंचमी व्रत की कथा कहानी ( 2 )
Rishi Panchami Ki Kahani ( 2 )

एक गांव में गरीब माँ और बेटे रहते थे। भाद्रपद महीने में जब ऋषि पंचमी आई तो बेटा अपनी माँ से बोला ” माँ , मैं अपनी बहन के घर राखी बंधवाने जाना चाहता हूँ। माँ ने कहा इस गरीबी में बहन के घर क्या लेकर जायेगा । बेटा बोला लकड़ी बेचने से जो भी पैसे मिलेंगे , वही लेकर चला जाऊँगा और वह अपनी बहन के घर पहुँच गया।
उस समय बहन सूत कात रही थी सूत का धागा बार बार टूट रहा था। बहन उसे जोड़ने में व्यस्त थी। देख ही नहीं पाई कि भाई आया है। भाई ने सोचा अमीर बहन के मन में गरीब भाई के प्रति प्रेम नही है और वह वापस जाने लगा इतने में बहन का सूत का तार जुड़ गया उसने जैसे ही नज़र उठाई तो देखा भाई जा रहा है। वह दौड़ कर गयी और भाई से बोली – भैया में तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी सूत बार बार टूट रहा था इसलिए बोल नहीं पाई।
भाई को बड़े प्यार से बैठाकर राखी बाँधी। भाई ने अपनी बहन को सुन्दर भेंट दी । बहन ख़ुशी से पागल हो रही थी। उसने पड़ोसन से सलाह की और पूछा मेरा प्यारा भाई आया है , उसके लिए क्या खाना बनाऊ। पड़ोसन ने कहा घी में चावल बना लेना और तेल का छौक लगा देना।
बहन भोली थी पड़ोसन ने जैसा कहा वैसा ही किया । दो घंटे हो गए भाई ने कहा भूख लगी है बहन ने भाई को पड़ोसन वाली बात बताई और कहा चावल अभी बने नहीं हैं । भाई ने समझाया बहन , चावल घी में नहीं बनते। दूध और चावल की खीर बना लो । बहन ने खीर बनाई और सब ने भोजन किया।
सुबह अँधेरे भाई को जाना था। बहन ने सुबह जल्दी उठ कर गेँहू पीसे और लडडू बनाकर भाई के साथ डाल दिए। थोड़ी देर बाद बच्चे उठे और बोले हमें भी लडडू चाहिए । बच्चो को देने के लिए लड्डू तोडा तो उसमे से साँप के छोटे छोटे टुकड़े निकले। उसे भाई की फ़िक्र होने लगी। वो तुरंत दौड़ी। बहुत दूर जाने के बाद भाई दिखा तो भाई को आवाज लगाई।
भाई सोचने लगा ये मेरे पीछे दौड़ कर क्यों आई है। उसने ऐसे इतनी दूर दौड़ कर आने का कारण पूछा। बहन बोली में तेरी जान बचाने आई हूँ तुझे जो लडडू दिए थे उसमें भूल से साँप के टुकड़े आ गए है । तुझे यही कहने आई थी। भाई बोला बहन मैं एक पेड़ पर पोटली टांक कर नीचे आराम कर रहा था , तब कोई चोर मेरे लडडू चुरा कर ले गए ।
संयोग से लडडू चोर पास ही में थे। वे लडडू खाने वाले ही लेकिन उनकी बात सुन कर रुक गए। बहन के पास आकर बोले तुमने हमारी जान बचाई है। आज से तुम हमारी धर्म बहन हो। लडडू वही खड्डा खोदकर गाढ़ दिए। बहन भाई को घर ले आई और तीसरे दिन सीख देकर भेजा।
इसलिए भाई को राखी के दिन रात को नहीं रोकना चाहिए और जाते समय खाने का कुछ सामान साथ नहीं बांधना चाहिए।
खोटी की खरी। अधूरी की पूरी।

लपसी तपसी की कहानी – Lapsi Tapsi Ki Kahani

एक लपसी था , एक तपसी था। तपसी हमेशा भगवान की तपस्या में लीन रहता था। लपसी रोजाना सवा सेर की लापसी बनाकर भगवान का भोग लगा कर जीम लेता था। एक दिन दोनों लड़ने लगे। तपसी बोला मै रोज भगवान की तपस्या करता हूँ इसलिए मै बड़ा हूँ। लपसी बोला मै रोज भगवान को सवा सेर लापसी का भोग लगाता हूँ इसलिए मै बड़ा ।
नारद जी वहाँ से गुजर रहे थे। दोनों को लड़ता देखकर उनसे पूछा कि तुम क्यों लड़ रहे हो ?
तपसी ने खुद के बड़ा होने का कारण बताया और लपसी ने अपना कारण बताया । नारद जी बोले तुम्हारा फैसला मै कर दूंगा । दूसरे दिन लपसी और तपसी नहा कर अपनी रोज की भक्ति करने आये तो नारद जी ने छुप करके सवा करोड़ की एक एक अंगूठी उन दोनों के आगे रख दी ।
तपसी की नजर जब अंगूठी पर पड़ी तो उसने चुपचाप अंगूठी उठा कर अपने नीचे दबा ली। लपसी की नजर अंगूठी पर पड़ी लेकिन उसने ध्यान नही दिया भगवान को भोग लगाकर लापसी खाने लगा। नारद जी सामने आये तो दोनों ने पूछा कि कौन बड़ा तो नारद जी ने तपसी से खड़ा होने को कहा। वो खड़ा हुआ तो उसके नीचे दबी अंगूठी दिखाई पड़ी।
नारद जी ने तपसी से कहा तपस्या करने के बाद भी तुम्हारी चोरी करने की आदत नहीं गयी। इसलिए लपसी बड़ा है। और तुम्हे तुम्हारी तपस्या का कोई फल भी नहीं मिलेगा। तपसी शर्मिंदा होकर माफ़ी मांगने लगा। उसने नारद जी से पूछा मुझे मेरी तपस्या का फल कैसे मिलेगा ?
नारद जी ने कहा यदि कोई गाय और कुत्ते की रोटी नहीं बनायेगा तो फल तुझे मिलेगा। यदि कोई ब्राह्मण को जिमा कर दक्षिणा नही देगा तो फल तुझे मिलेगा। यदि कोई साड़ी के साथ ब्लाउज नहीं देगा तो फल तुझे मिलेगा। यदि कोई दिये से दिया जलाएगा तो फल तुझे मिलेगा।
यदि कोई सारी कहानी सुने लेकिन तुम्हारी कहानी नहीं सुने तो फल तुझे मिलेगा। उसी दिन से हर व्रत कथा कहानी के साथ लपसी तपसी की
कहानी भी सुनी और कही जाती है।

गणेश जी की कहानी – Ganesh ji ki kahani

एक बार गणेश जी एक लड़के का वेष धरकर नगर में घूमने निकले। उन्होंने अपने साथ में चुटकी भर चावल और चुल्लू भर दूध ले लिया।
नगर में घूमते हुए जो मिलता उसे खीर बनाने का आग्रह कर रहे थे। बोलते माई खीर बना दें लोग सुनकर हँसते। बहुत समय तक घुमते रहे मगर कोई भी खीर बनाने को तैयार नहीं हुआ। किसी ने ये भी समझाया की इतने से सामान से खीर नहीं बन सकती पर गणेश जी को तो खीर बनवानी ही थी।
अंत में एक गरीब बूढ़ी अम्मा ने उन्हें कहा बेटा चल मेरे साथ में तुझे खीर बनाकर खिलाऊंगी। गणेश जी उसके साथ चले गए। बूढ़ी अम्मा ने उनसे चावल और दूध लेकर एक बर्तन में उबलने चढ़ा दिए। दूध में ऐसा उफान आया कि बर्तन छोटा पड़ने लगा। बूढ़ी अम्मा को बहुत आश्चर्य हुआ कुछ समझ नहीं आ रहा था। अम्मा ने घर का सबसे बड़ा बर्तन रखा।
वो भी पूरा भर गया। खीर बढ़ती जा रही थी। और उसकी खुशबू भी फैल रही थी।
खुशबू से अम्मा की बहु की खीर खाने की इच्छा होने लगी। उसने एक कटोरी में खीर निकली और दरवाजे के पीछे बैठ कर बोली ले गणेश तू भी खा मै भी खाऊं और खीर खा ली।
बूढ़ी अम्मा ने बाहर बैठे गणेश जी को आवाज लगाई। बेटा तेरी खीर तैयार है। आकर खा ले। गणेशजी बोले अम्मा तेरी बहु ने भोग लगा दिया मेरा पेट तो भर गया। खीर तू गांव वालों को खिला दे। बूढ़ी अम्मा ने गांव वालो को निमंत्रण देने गई। सब हंस रहे थे। अम्मा के पास तो खुद के खाने के लिए भी कुछ नहीं है गांव को कैसे खिलाएगी। पर सब आये। बूढ़ी अम्मा ने सबको पेट भर खीर खिलाई। सभी ने तृप्त होकर खीर खाई लेकिन फिर भी खीर ख़त्म नहीं हुई। भंडार भरा ही रहा।
हे गणेश जी महाराज जैसे खीर का भगोना भरा रहा वैसे ही हमारे घर का भंडार भी सदा भरे रखना।
बोलो गणेश जी महाराज की जय !!!

ऊब छठ की कहानी – Ub chhath ki kahani

किसी गांव में एक साहूकार और इसकी पत्नी रहते थे। साहूकार की पत्नी रजस्वला होती थी तब सभी प्रकार के काम कर लेती थी। रसोई में जाना , पानी भरना , खाना बनाना , सब जगह हाथ लगा देती थी। उनके एक पुत्र था। पुत्र की शादी के बाद साहूकार और उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई।
अगले जन्म में साहूकार एक बैल के रूप में पैदा हुआ और उसकी पत्नी अगले जन्म में कुतिया बनी। और ये दोनों अपने पुत्र के यहाँ ही थे।
बैल से खेतों में हल जुताया जाता था और कुतिया घर की रखवाली करती थी।
श्राद्ध के दिन पुत्र ने बहुत से पकवान बनवाये। खीर भी बन रही थी। अचानक कही से एक चील उड़ती हुई आई जिसके मुँह में एक मरा हुआ साँप था। वो सांप चील के मुँह से छूटकर खीर में गिर गया। कुतिया ने यह देख लिया। उसने सोचा इस खीर को खाने से कई लोग मर सकते है।
उसने खीर में मुँह अड़ा दिया ताकि उस खीर को लोग ना खाये।
पुत्र की पत्नी ने कुतिया को खीर में मुँह अड़ाते हुए देखा तो गुस्से में एक मोटे डंडे से उसकी पीठ पर मारा। चोट तेज थी कुतिया की पीठ की हड्डी टूट गई। उसे बहुत दर्द हो रहा था। रात को वह बैल से बात कर रही थी। उसने कहा तुम्हारे लिए श्राद्ध हुआ तुमने पेट भर भोजन किया होगा। मुझे तो खाना भी नहीं मिला ,मार पड़ी सो अलग। बैल ने कहा – मुझे भी भोजन नहीं मिला , दिन भर खेत पर ही काम करता रहा।
ये सब बातें बहु ने सुन ली। उसने अपने पति को बताया। उसने एक पंडित को बुलाकर इस घटना का जिक्र किया। पंडित में अपनी ज्योतिष विद्या से पता करके बताया की कुतिया उसकी माँ और बैल उसके पिता है।और उनको ऐसी योनि मिलने का कारण माँ द्वारा रजस्वला होने पर भी सब जगह हाथ लगाना , खाना बनाना , पानी भरना था।
उसे बड़ा दुःख हुआ और माता पिता के उद्धार का उपाय पूछा। पंडित ने बताया यदि उसकी कुँवारी कन्या भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्टी यानि
ऊब छठ का व्रत करे। शाम को नहा कर पूजा करे उसके बाद बैठे नहीं। चाँद निकलने पर अर्ध्य दे। अर्ध्य देने पर जो पानी गिरे वह बैल और कुतिया को छूए तो उनका मोक्ष हो जायेगा।
जैसा पंडित ने बताया था कन्या ने ऊब छठ का व्रत किया , पूजा की। चाँद निकलने पर चाँद को अर्ध्य दिया। अर्ध्य का पानी जमीन पर गिरकर बहते हुए बैल और कुतिया पर गिरे ऐसी व्यवस्था की। पानी उन पर गिरने से दोनों को मोक्ष प्राप्त हुआ और उन्हें इस योनि से छुटकारा मिल गया।
हे ऊब छठ माता जैसे इनका किया वैसे सभी का उद्धार करना।
कहानी कहने वाले और सुनने वाले का भला करना।
बोलो छठ माता की जय !!!

बछ बारस की कहानी – Bachh Baras Ki Kahani
Govats dwadashi kahani , Vats dwadashi kahani

बछ बारस Bach Baras या गोवत्स द्वादशी का व्रत भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की द्वादशी के दिन महिलाये रखती है। अपने पुत्र की मंगल कामना में यह व्रत रखा जाता है और पूजा की जाती है। तथा बच बारस की कहानी ( Bach baras ki kahani ) कहानी सुनी जाती है।

बछ बारस की कहानी ( 1 )
एक बार एक गांव में भीषण अकाल पड़ा। वहां के साहूकार ने गांव में एक बड़ा तालाब बनवाया परन्तु उसमे पानी नहीं आया। साहूकार ने पंडितों से उपाय पूछा। पंडितो ने बताया की तुम्हारे दोनों पोतो में से एक की बलि दे दो तो पानी आ सकता है। साहूकार ने सोचा किसी भी प्रकार से गांव का भला होना चाहिए। साहूकार ने बहाने से बहु को एक पोते हंसराज के साथ पीहर भेज दिया और एक पोते को अपने पास रख लिया जिसका नाम बच्छराज था । बच्छराज की बलि दे दी गई । तालाब में पानी भी आ गया।
साहूकार ने तालाब पर बड़े यज्ञ का आयोजन किया। लेकिन झिझक के कारण बहू को बुलावा नहीं भेज पाये। बहु के भाई ने कहा ” तेरे यहाँ इतना बड़ा उत्सव है तुझे क्यों नहीं बुलाया , मुझे बुलाया है ,मैं जा रहा हूँ। बहू बोली ” बहुत से काम होते है इसलिए भूल गए होंगें “। अपने घर जाने में कैसी शर्म। ” मैं भी चलती हूँ
घर पहुंची तो सास ससुर डरने लगे कि बहु को क्या जवाब देंगे। फिर भी सास बोली बहू चलो बछ बारस की पूजा करने तालाब पर चलें। दोनों ने जाकर पूजा की। सास बोली , बहु तालाब की किनार कसूम्बल से खंडित करो। बहु बोली मेरे तो हंसराज और बच्छराज है , मैं खंडित क्यों करूँ। सास बोली ” जैसा मैं कहू वैसे करो “। बहू ने सास की बात मानते हुए किनार खंडित की और कहा ” आओ मेरे हंसराज , बच्छराज लडडू उठाओ। ”
सास मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगी ” हे बछ बारस माता मेरी लाज रखना। भगवान की कृपा हुई। तालाब की मिट्टी में लिपटा बच्छराज व हंसराज दोनों दौड़े आये। बहू पूछने लगी “सासूजी ये सब क्या है ?” सास ने बहू को सारी बात बताई और कहा भगवान ने मेरा सत रखा है। आज भगवान की कृपा से सब कुशल मंगल है। खोटी की खरी , अधूरी की पूरी
हे बछ बारस माता जैसे सास का सत रखा वैसे सबका रखना।

बछ बारस की कहानी ( 2 )
एक सास बहु थी। सास को गाय चराने के लिए वन में जाना जाना था। उसने बहु से कहा “आज बज बारस है में वन जा रही हूँ तो तुम गेहू लाकर पका लेना और धान लाकर उछेड़ लेना। बहू काम में व्यस्त थी। उसने ध्यान से सुना नहीं। उसे लगा सास ने कहा गेहूंला धानुला को पका लेना। गेहूला और धानुला गाय के दो बछड़ों के नाम थे। बहू को कुछ गलत तो लग रहा था लेकिन उसने सास का कहा मानते हुए बछड़ों को काट कर पकने के लिए चढ़ा दिया ।
सास ने लौटने पर पर कहा आज बछ बारस है , बछड़ों को छोड़ो पहले गाय की पूजा कर लें। बहु डरने लगी , भगवान से प्रार्थना करने लगी बोली हे भगवान मेरी लाज रखना , भगवान को उसके भोलेपन पर दया आ गई। हांड़ी में से जीवित बछड़ा बाहर निकल आया। सास के पूछने पर बहु ने सारी घटना सुना दी। और कहा भगवान ने मेरा सत रखा , बछड़े को फिर से जीवित कर दिया।
इसीलिए बछ बारस के दिन गेंहू नहीं खाये जाते और कटी हुई चीजें नहीं खाते है। गाय बछड़े की पूजा करते है।
हे बछ बारस माता जैसे बहु की लाज रखी वैसे सबकी रखना।
खोटी की खरी ,अधूरी की पूरी।

सातुड़ी तीज की कहानी / कजली तीज की कहानी
Satudi Teej Ki Kahani / Kajli Teej Ki Kahani

कहानी ( 1 )
एक साहूकार था ,उसके सात बेटे थे। उसका सबसे छोटा बेटा पांगला (पाव से अपाहिज़ ) था। वह रोजाना एक वेश्या के पास जाता था। उसकी पत्नी बहुत पतिव्रता थी। खुद उसे कंधे पर बिठा कर वेश्या के यहाँ ले जाती थी। बहुत गरीब थी। जेठानियों के पास काम करके अपना गुजारा करती थी।
भाद्रपद के महीने में कजली तीज के दिन सभी ने तीज माता के व्रत और पूजा के लिए सातु बनाये। छोटी बहु गरीब थी उसकी सास ने उसके लिए भी एक सातु का छोटा पिंडा बनाया। शाम को पूजा करके जैसे ही वो सत्तू पासने लगी उसका पति बोला मुझे वेश्या के यहाँ छोड़ कर आ हर दिन की तरह उस दिन भी वह पति को कंधे पैर बैठा कर छोड़ने गयी , लेकिन वो बोलना भूल गया की तू जा।
वह बाहर ही उसका इंतजार करने लगी इतने में जोर से वर्षा आने लगी और बरसाती नदी में पानी बहने लगा । कुछ देर बाद नदी आवाज़ से आवाज़ आई “आवतारी जावतारी दोना खोल के पी। पिव प्यारी होय “ आवाज़ सुनकर उसने नदी की तरफ देखा तो दूध का दोना नदी में तैरता हुआ आता दिखाई दिया। उसने दोना उठाया और सात बार उसे पी कर दोने के चार टुकड़े किये और चारों दिशाओं में फेंक दिए।
उधर तीज माता की कृपा से उस वेश्या ने अपना सारा धन उसके पति को वापस देकर सदा के लिए वहाँ से चली गई। पति ने सारा धन लेकर घर आकर पत्नी को आवाज़ दी ” दरवाज़ा खोल ” तो उसकी पत्नी ने कहा में दरवाज़ा नहीं खोलूँगी। तब उसने कहा कि अब में वापस नहीं जाऊंगा। अपन दोनों मिलकर सातु पासेगें।
लेकिन उसकी पत्नी को विश्वास नहीं हुआ, उसने कहा मुझे वचन दो वापस वेश्या के पास नहीं जाओगे। पति ने पत्नी को वचन दिया तो उसने दरवाज़ा खोला और देखा उसका पति गहनों और धन माल सहित खड़ा था। उसने सारे गहने कपड़े अपनी पत्नी को दे दिए। फिर दोनों ने बैठकर सातु पासा।
सुबह जब जेठानी के यहाँ काम करने नहीं गयी तो बच्चे बुलाने आये काकी चलो सारा काम पड़ा है। उसने कहा अब तो मुझ पर तीज माता की पूरी कृपा है अब मै काम करने नहीं आऊंगी। बच्चो ने जाकर माँ को बताया की आज से काकी काम करने नहीं आएगी उन पर तीज माता की कृपा हुई है वह नए – नए कपडे गहने पहन कर बैठी है और काका जी भी घर पर बैठे है। सभी लोग बहुत खुश हुए।
हे तीज माता !!! जैसे आप उस पर प्रसन्न हुई वैसे ही वैसी ही सब पर प्रसन्न होना ,सब के दुःख दूर करना।

कहानी ( 2 )
एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था । भाद्रपद महीने की कजली तीज आई। ब्राह्मणी ने तीज माता का व्रत रखा। ब्राह्मण से कहा आज मेरा तीज माता का व्रत है। कही से चने का सातु लेकर आओ। ब्राह्मण बोला में सातु कहाँ से लाऊं। तो ब्राह्मणी ने कहा कि चाहे चोरी करो चाहे डाका डालो। लेकिन मेरे लिए सातु लेकर आओ।
रात का समय था। ब्राह्मण घर से निकला और साहूकार की दुकान में घुस गया। उसने वहाँ पर चने की दाल , घी , शक्कर लेकर सवा किलो तोलकर सातु बना लिया और जाने लगा। आवाज सुनकर दुकान के नौकर जग गए और चोर चोर चिल्लाने लगे।
साहूकार आया और ब्राह्मण को पकड़ लिया । ब्राह्मण बोला में चोर नहीं हूँ । में तो एक गरीब ब्राह्मण हूँ । मेरी पत्नी का आज तीज माता का व्रत है इसलिए में तो सिर्फ ये सवा किलो का सातु बना कर ले जा रहा था । साहूकार ने उसकी तलाशी ली। उसके पास सातु के अलावा कुछ नहीं मिला।
चाँद निकल आया था ब्राह्मणी इंतजार ही कर रही थी।
साहूकार ने कहा कि आज से तुम्हारी पत्नी को में अपनी धर्म बहन मानूंगा। उसने ब्राह्मण को सातु , गहने ,रूपये ,मेहंदी , लच्छा और बहुत सारा धन देकर ठाठ से विदा किया।
बोलो तीज माता की जय !!!

नीमड़ी माता की कहानी – Neemdi Mata Ki Kahani

एक शहर में एक सेठ- सेठानी रहते थे । वह बहुत धनवान थे लेकिन उनके पुत्र नहीं था। सेठानी ने भादुड़ी बड़ी तीज ( सातुड़ी तीज ) का व्रत करके कहा कि ” हे नीमड़ी माता मेरे बेटा हो जायेगा , तो मै आपको सवा मण का सातु चढ़ाऊगी “। माता की कृपा से सेठानी को नवें महीने लड़का हो गया। सेठानी ने सातु नहीं चढ़ाया। समय के साथ सेठानी को सात बेटे हो गए लेकिन सेठानी सातु चढ़ाना भूल गयी।
पहले बेटे का विवाह हो गया। सुहागरात के दिन सोया तो आधी रात को साँप ने आकर डस लिया और उसकी मृत्यु हो गयी। इसी तरह उसके छः बेटो की विवाह उपरान्त मृत्यु हो गयी। सातवें बेटे की सगाई आने लगी सेठ-सेठानी मना करने लगे तो गाँव वालो के बहुत कहने व समझाने पर सेठ-सेठानी बेटे की शादी के लिए तैयार हो गए। तब सेठानी ने कहा गाँव वाले नहीं मानते हैं तो इसकी सगाई दूर देश में करना।
सेठ जी सगाई करने के लिए घर से चले ओर बहुत दूर एक गाँव आये। वहाँ चार-पांच लड़कियाँ खेल रही थी जो मिटटी का घर बनाकर तोड़ रही थी। उनमे से एक लड़की ने कहा में अपना घर नहीं तोडूंगी। सेठ जी को वह लड़की समझदार लगी। खेलकर जब लड़की वापस अपने घर जाने लगी तो सेठ जी भी पीछे -पीछे उसके घर चले गए। सेठजी ने लड़की के माता पिता से बात करके अपने लड़के की सगाई व विवाह की बात पक्की कर दी।
घर आकर विवाह की तैयारी करके बेटे की बारात लेकर गया और बेटे की शादी सम्पन्न करवा दी। इस तरह सातवे बेटे की शादी हो गयी। बारात विदा हुई लंबा सफर होने के कारण लड़की की माँ ने लड़की से कहा कि मै यह सातु व सीख डाल रही हूं। रास्ते में कहीं पर शाम को नीमड़ी माता की पूजा करना, नीमड़ी माता की कहानी सुनना , सातु पास लेना व कलपना निकालकर सासु जी को दे देना।
बारात धूमधाम से निकली। रास्ते में बड़ी तीज का दिन आया ससुर जी ने बहु को खाने का कहा। बहु बोली आज मेरे तीज का उपवास है ,शाम को नीमड़ी माता का पूजन करके नीमड़ी माता की कहानी सुनकर ही भोजन करुँगी। एक कुएं के पास नीमड़ी नजर आई तो सेठ जी ने गाड़ी रोक दी। बहु नीमड़ी माता की पूजा करने लगी तो नीमड़ी माता पीछे हट गयी। बहु ने पूछा ” हे माता आप पीछे क्यों हट रही हो “। इस पर माता ने कहा तेरी सास ने कहा था पहला पुत्र होने पर सातु चढ़ाऊंगी और सात बेटे होने के बाद , उनकी शादी हो ने के बाद भी अभी तक सातु नहीं चढ़ाया। वो भूल चुकी है।
बहु बोली हमारे परिवार की भूल को क्षमा कीजिये , सातु मैं चढ़ाऊंगी। कृपया मेरे सारे जेठ को वापस कर दो और मुझे पूजन करने दो। माता नववधू की भक्ति व श्रद्धा देखकर प्रसन्न हो गई। बहु ने नीमड़ी माता का पूजन किया ,और चाँद को अर्ध्य दिया ,सातु पास लिया और कलपना ससुर जी को दे दिया। प्रातः होने पर बारात अपने नगर लौट आई।
जैसे ही बहु से ससुराल में प्रवेश किया उसके छहों जेठ प्रकट हो गए। सभी बड़े खुश हुए उन सभी को गाजे बाजे से घर में लिया। सासु बहु के पैर पकड़ का धन्यवाद करने लगी तो बहु बोली सासु जी आप ये क्या करते हो , जो बोलवा करी है उसे याद कीजिये । सासु बोली ” मुझे तो याद नहीं तू ही बता दे ” बहु बोली आपने नीमड़ी माता के सातु चढाने का बोला था सो पूरा नहीं किया। तब सासू को याद आई।
बारह महीने बाद जब कजली तीज आई , सभी ने मिल कर कर सवा सात मण का सातु तीज माता को चढ़ाया। श्रद्धा और भक्ति भाव से गाजे बाजे के साथ नीमड़ी माँ की पूजा की। बोलवा पूरी करी।
हे भगवान उनके आनंद हुआ वैसा सबके होवे। खोटी की खरी , अधूरी की पूरी।
बोलो नीमड़ी माता की जय !!!

गणगौर के गीत पूजन के बाद के
Gangaur ke Geet Poojan ke bad ke

गणगौर का गीत ओड़ो कोड़ो
-: Gangaur ka Geet odo kodo :-
ओड़ो कोड़ो छ रावलो ये राई चन्दन को रोख
ये कुण गौरा छै पातला ऐ कुणा माथ ऐ मोल
ईसरदास जी गोरा छ पातला ऐ ब्रह्मा माथे मोल
बाई थारो काई को रूसणो ये काई को सिंगार
बाई म्हारे सोना को रूसणों ऐ मोतिया रो सिंगार
अब जाऊँ म्हारे बाप के ऐ ल्याउली नौसर हार
चौसर हार गढ़ाए ,पाटे पुवाए गोरक सुधों मूंदडो ,
गोरा ईसरदास जी ब्रह्मदास जी जोगो मूंदडो ,
वाकी रानिया होए बाई बेटिया होए आठ गढ़ाए पाटे पुवाए गोरक सुधो मूंदडो
गोरा चाँद ,सूरज ,महादेव पार्वती जोगो मूंदडो
गोरा मालन , माली ,पोल्या -पोली जोगो मूंदडो मूंदड़ो ,
(अपने घर वालों के नाम लेने है )
गणगौर का गीत बधावा का
– : Gangaur ka Geet Badhava ka : –

चाँद चढ़यो गिरनार , किरत्यां ढल रही जी ढल रही
जा बाई रोवा घरा पधार माऊजी मारेला जी मारेला
बापू जी देवला गाल ,बडोड़ो बीरो बरजेलो जी बरजेलो ,
थे मत दयो म्हारी बाई न गाल ,बाई म्हारी चिड़कोली जी चिड़कोली।
आज उड़ पर बात सवार बाई उड़ ज्यासी जी उड़ ज्यासी ,
गोरायारं दिन चार जावईडो ले जासी जी ले जासी
(घर की बहन बेटियो का नाम लेना है )
गणगौर का गीत ज्वारा का
– : Gangaur ka Geet Jwara ka : –
म्हारा हरया ए ज्वारा ऐ ,गेन्हूला सरस बध्या
गोरा ईसरदास जी रा बायां ऐ वाकी रानी सींच लिया
गोरा ब्रह्मदास जी रा बायां ऐ वाकी रानी सींच लिया
वे तो सींच न जाने ये आड़ा ऊबा सरस बध्या
बाई रो सरस पोटलों ये ,गेंहूडा सरस बध्या
म्हारा हरिया ए ज्वारा ये गेन्हुला सरस बध्या
गोरा चाँद सूरज बाया ये वाकी रानी सींच लिया
वे तो सींच न जाने ये आड़ा ऊबा सरस बध्या
बाई रो सरस पोटलो ये गेन्हुला सरस बध्या
मालीदास जी ,पोलीदास जी बाया ऐ वाकी रानी सींच लिया
वे तो सींच न जाने ये आड़ा ऊबा सरस बध्या
(सभी घर वालों के नाम लेने हैं )
सूरज को अरक देने का गीत
– : Sooraj ko arak dene ka Geet : –
अल खल नदी जाय यो पाणी कहा जाय
आदो जाती अणया गलया आदो ईसर न्हासी
ईसर थे घरा पदारो गौरा जायो बैटो
अरदा लाओ परदा ल्याओ बन्दर बाल लगाओ
सार कीए सूई भाभी पाट काए तागा
सीम दरजी बेटा ईसर जी का बागा
सीमा लार सीमा आला मोत्या की लड़ -जड़ पोउला थे चालो म्हे आवला।
गणगौर को पानी पिलाने का गीत
– : Gangaur ko pani pilane ka Geet : –
म्हारी गोर तिसांई जी ,राज घटियांरो मुकुट करो।
म्हारी गँवरा पानीडो सो पाय घटियांरो मुकुट करो
म्हारी गवर तिसांई ओ राज घाटयांरो मुकुट करो।
ब्रह्मदास जी रा ईशरदास जी ओ राज घाटयांरो मुकुट करो।
म्हारी गवरा पानीड़ो पिलाय घांटा रो मुकुट करो।
म्हारी गवरा तिसाई ओ राज घांटा रो मुकुट करो।
(बह्मदास जी की जगह पिता और ईशरदास जी की जगह पुत्र का नाम लेना हैं )

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