उत्पति और इतिहास

 

भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास में श्रीमाली ब्राहम्णों का विशेष स्थान है। प्रमुख रूप से ये लोग राजस्थान, गुजरात व मध्य प्रदेश में पायें जाते है, किन्तु आजीविका की दृष्टि से वर्तमान में सम्पूर्ण भारत तथा विश्व के अनेक भागों में फैले हुये हैं। हिन्दू समाज में वर्णव्यवस्था के विकास पर दृष्टिपात किया जाय तो वैदिक काल में चतुवर्ण व्यवस्था के अन्र्तगत ब्राहम्ण वर्ग से ही इनका संबंध रहा है। जिस समय ब्राहम्ण वर्ग में से जन्मजात रूढ़ जातीय जीवन का विकास हुआ तब ब्रहम्र्षि देश में निवास करने वाले ब्राहम्णों से निकले दस प्रकार के ब्राहम्ण इस भूमण्डल में प्रसिद्ध हुये – पंचगौड़ एवं पंचद्रविड़। विन्ध्याचल के उत्तर में निवास करने वाले सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड, उत्कल, औदीच्य एवं मैथिल पंचगौड कहलाए तथा विन्ध्याचल के दक्षिण में निवास करने वाले कर्नाटक, तैलंग, द्रविड, गुर्जर व महाराष्ट्र पंचद्रविड़ कहलाये। उत्तरी गुजरात में बसने (गुजरात भी द्रविड देश में शुमार है) से श्रीमाली ब्राहम्ण पूर्व में द्रविड़ ब्राहम्ण कहलाए तथा पंच द्रविड़ों में गुजराती (गुर्जर) पुकारे जाते थे। कालान्तर में जब विभिन्न कारणों (वर्ण संकरता, वंश अनुवांशिकता, प्रदेश इत्यादि) से जातियाँ उपजातियों में बँटी तो स्थान विशेष के कारण (कश्मीर के रहने वाले कश्मीरी ब्राहम्ण , कन्नौज के कान्यकुब्ज, गौड देश के गौड ब्राहम्ण इत्यादि) श्रीमाल प्रदेश (भीनमाल-जालौर) में रहने वाले ब्राहम्ण श्रीमाली ब्राहम्ण के नाम से जाने जाने लगे। ब्राहम्ण शब्द का अर्थ ही वेदों के उस भाग से है जिसमें कर्मकाण्ड समझाया गया है। श्रीमाली ब्राहम्ण इसी विशिष्टता का प्रतिनिधित्व करते हुये वेदाध्यायी, कर्मकाण्डी तथा शुद्ध उच्चारण के लिये समस्त ब्राहम्णों में प्रसिद्ध हैं।

श्रीमाली ब्राहम्णों के इतिहास की जानकारी का सर्वोत्तम उपलब्ध प्रमाण श्रीमालपुराण है जिसे श्रीमाल माहात्म्य भी कहते हैं, इसके लेखक के अनुसार यह स्कन्ध पुराण का ही एक भाग है। यद्यपि तथ्यों एवं कालक्रम की दृष्टि से इसमें गंभीर ऐतिहासिक भूलें है, फिर भी उपलबध प्रमाणों में यह सर्वोत्तम है जो इस जाति के इतिहास का एकमात्र विस्तृत स्रोत है। इसके अलावा श्रीमाल प्रदेश में रचे हुये फुटकर जैन साहित्य, शिलालेखों, भाटबहियों, किवदन्तियों तथा परम्परागत रीति-रिवाजों से भी इस जाति के ऐतिहासिक विकास का पता चलता है।
श्रीमाल पुराण विक्रम की तेरहवीं सदी के पूर्वाद्ध की रचना प्रतीत होती है। यह पचहत्तर अध्याय व सैकड़ों श्लोको में संस्कृत भाषा में रचित है। श्रीमाल पुराण में श्रीमाल नगर एवं श्रीमाली ब्राहम्णों के संबंध में कथानक निम्न प्रकार से है:
भृगु ऋषि के यहाँ एक बहुत सुन्दर कन्या का जन्म आसोज कृष्णा अष्टमी को हुआ। उसका नाम श्री (लक्ष्मी) रखा गया। उस कन्या का विवाह क्षीरसागर (बंगाल की खाड़ी) से भृगु के यहां आकर विष्णु भगवान ने किया। गरूड़ पर सवार होकर श्री के साथ विष्णु भगवान (प्रतीकात्मक) त्रयंबक सरोवर आये। उस कन्या ने सरावेर में स्नान किया जिससे उसका मानवीय जड़त्व मिटा और दिव्य देवत्व प्राप्त हुआ। तब श्री की इच्छा हुई की मैं यहां एक नगर बसाऊँ। इस प्रकार श्री के विवाह के अवसर पर श्रीमाल नगर की नींव पड़ी और तभी से श्रीमाली ब्राहम्ण जाति का उद्भव हुआ।
लक्ष्मी (श्री) की भावना के अनुसार यह बसने वाला नगर ब्राहम्णों को दान में देना था। अतः विष्णु ने अपने दूतों को ब्राहम्णों को लेने के लिये नाना प्रदेशों में तुरन्त भेजा और उनके निमंत्रण पर विभिन्न स्थानों से जो ब्राहम्ण आये उनकी कुल संख्या पचार हजार थी जिसमें सैधवारण्यवासी पांच हजार ब्राहम्ण भी थे। एक दान का अधिक व्यक्तियों को संकल्प नहीं हो सकता, इस सिद्धांत के अनुसार एक ऐसा व्यक्ति इसके लिये तय करना आवश्यक था जो ज्ञानी, विद्वान, श्रेष्ठतम् एवं अध्र्य वंदन करने योग्य हो। विष्णु, श्री तथा ब्राहम्णों ने इसके लिये महर्षि गौतम, जो आंगिरसी ब्राहम्ण थे और काशी से आये थे, को ही उत्तम समझा ; किन्तु सैधवारण्यवासी ब्राहम्णों ने इसका विरोध किया और गौतम की आलोचना की। इस पर आंगिरसी ब्राहम्णों (जो उज्जैन क्षेत्र से आये थे) ने सैधवारण्यवासी ब्राहम्णों पर कोप करते हुये शाप दिया की तुम लोग वेद से विमुख होओगे। शाप लगने से सैधवारण्यवासी सिन्धु सौवीर से आये हुये ब्राहम्ण पुनः अपने क्षेत्र में चले गये। विष्णु व लक्ष्मी ने महर्षि गौतम को अध्र्य वंदन करवाकर, संकल्प कर उस पुण्य क्षेत्र को दान में दे दिया, जिसे गौतम ने उपस्थित ब्राहम्णों में वितरित कर दिया था। श्री के बसाए हुये नगर में ब्राहम्ण बस गये, तभी से यह नगर श्रीमाल नगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके साथ ही यहां बसे ब्राहम्ण श्रीमाली ब्राहम्ण कहलाने लगे तथा अपनी सख्यां के आधार पर इनकी पहचान ‘‘पैतालीस हजार की न्यात’’ से हो गयी। यद्यपि कालान्तर में यह संख्या परिवर्तित होती गयी, किन्तु अपनी परम्परागत पहचान के बतौर समस्त श्रीमाली ब्राहम्ण आज भी अपने को 45 हजार की न्यात से संबोधित करने में गौरव अनुभव करते हैं।

 


लक्ष्मी का पाटन गमन

श्रीमाल पुराण के अनुसार बाद में ईष्र्यावश श्रीमाली ब्राहम्णों ने गौतम ऋषि पर गौवध का आरोप लगाकर उन्हे पंक्ति (न्यात) से बाहर कर दिया और नगर छोड़ने को विवश कर दिया। इस पर गौतम ने अपनी पत्नी अहिल्या के साथ श्रीमाल नगर को त्याग दिया और महावीर के पास जा कर जैन धर्म की दीक्षा ले ली। गौतम ने एक वर्ष तक सरस्वती की आराधना कर वरदान मांगा की मेरे बनाये हुये आगम जनता में चले। इसके पश्चात् गौतम पुनः श्रीमाल नगर में आये और वहां जैन धर्म का प्रचार किया। इस समय श्रीमाली ब्राहम्णों ने गौतम के समक्ष अपनी भूल स्वीकार की। लक्ष्मी जी ने भी समझाया किन्तु गौतम नहीं माने और जैन बने रहे। 92 वर्ष की आयु में गौतम का स्वर्गवास हो गया। इसी घटना के कारण लक्ष्मी श्रीमाली ब्राहम्णों पर कोपायमान हुई और उसने पाटन जाने का संकल्प किया। संभवतः यहां लक्ष्मी गमन के दो पृथक सन्दर्भों को मिलाया गया है। प्रथम बार गौतम के स्वर्गवास के पश्चात् ‘‘श्री’’ (भृगु ऋषि की कन्या तथा ऐश्वर्य की देवी की प्रतीक) का कोपायमान होकर जाना और दूसरी बात ‘‘श्री’’ (भगवती लक्ष्मी की प्रतिमा) का वि. सं. 1203 में पाटन जाना। जाती हुई लक्ष्मी ने ब्राहम्णों की आजीविका के लिये दो घर जैन वैश्य के बीच एक घर ब्राहम्ण का रहेगा ऐसा तय किया। साथ ही श्रीमाल नगर के विघटन की भी भविष्यवाणी की। श्रीमाल पुराण में लक्ष्मी के पाटन जाने की तिथी वि. सं. 1213 वैसाख शुक्ला 8 दी हुई है। इस घटना से संबंधित कथानक के अनुसार श्रीमाल नगर के ही श्रीमाली ब्राहम्ण देवरिख को नौ वर्ष के लिये नौ लाख में लक्ष्मी पूजन का ठेका दिया गया था। एक अवसर पर जब श्रीमाल नगर के समस्त श्रीमाली ब्राहम्ण हरियाजानी के हेले (न्यात बुलावा) पर पाटन नगर में गये हुये थे तब देवरिख व उसके साथियों ने नौं लाख सिक्कों में लक्ष्मी की प्रतिमा सुनन्द नामक वणिक को बेच दी। लक्ष्मी जी की यह प्रतिमा चैदह रत्नों से जडि़त स्वर्णसिंहासन से युक्त, आभूषण एवं स्वर्ण वस्त्रों से युक्त होने से चैवन लाख रूपयों के मूल्य की सम्पत्ति से युक्त थी। जब सुनन्द बैलों के रथ में लक्ष्मी प्रतिमा को पाटन ले जाने लगा तो उस समय जल भर कर आती हुई श्रीमाली ब्राहम्ण महिलाओं ने रथ के सामने आकर उसे रोकने का विफल प्रयास किया। इस प्रतिमा को पाटन में त्रिपोलिया के पास लक्ष्मी सेरी के मंदिर में स्थापित किया गया। जो आज भी दृष्टव्य है।


 

महर्षि गौतम 

महर्षि गौतम कौन थे ? इनके संबंध में अनेक भ्रान्तियां है। वस्तुतः ये वे गौतम हैं जो जैन साहित्य में गौतम गणधर नाम से प्रसिद्ध है। ये महान् विद्वान आचार सिद्धांतों के सर्वोपरि रचयिता, यज्ञों में आचार्य पद को सुशोभित करने वाले तथा हिंसक यज्ञों के महान् विरोधी थे। यहां तक कि इनके आचार को मानने वाले श्रीमाली ब्राह्मण आज भी यज्ञों व संस्कारों में नारियल होमते हैं तथा प्रायश्चित हेतु 108 ब्राह्मणों को भोजन करवाना अनिवार्य समझते हैं। जबकि भारत में अन्य ब्राह्मणादि वर्णों में ऐसी औपचारिकता अनिवार्य नहीं है। यहीं नहीं सुपारी होमने पर 25 ब्राह्मण, फल होमने पर 11 ब्राह्मण तथा पुष्प होमने पर तीन ब्राह्मण भोजन करवाने का विधान है। शालिग्रामशिला पहले त्राटक सिद्धि करने हेतु थी, उसे सर्वप्रथम विष्णु स्वरूप की उपासना में इन्होंने ही स्थान दिया। इसके पहले ये उपासना में रही हो ऐसा वर्णन नहीं मिलता। श्रीयंत्र (चक्र) से लक्ष्मी सूक्त का सम्बन्ध ऋग्वेद की ऋचाओं से जोड़कर उपासना में सर्वप्रथम स्थान इन्होंने ही रखा। तुलसी के पौधे के गुणों की खोजकर विष्णु स्वरूप शालिग्रामशिला के लिए पुष्प की जगह इसके मंजरिए इन्होंने ही रखे। तुलसी पत्ता व शालिग्राम शिला का जल, जो विष का शमन करने वाला एवं मानव को सात्त्विक गुणों की ओर अग्रसर करने वाला है, के नित्य पान करने का विधान बनाया। इन्होंने 48 संस्कार रखे ; किन्तु नहीं निभने से वे 16 तक सीमित हो गए। इनके चलाए कई नियम आज भी प्रचलित हैं जैसे बारात का विवाह के एक दिन पहले आना, गौरी पूजन विवाह के समय ही करना इत्यादि। इनके द्वारा रचित स्मृति का नाम कोकिल स्मृति है जो अन्य स्मृतिकारों से विशिष्ठ भिन्नता लिए हुए है ; किन्तु कोकिल स्मृति अप्राप्यं है, यद्यपि श्रीमाल पुराणकार ने इस ग्रन्थ का होना लिखा है। कुछ विद्वानों के अनुसार कोकिल स्मृति की रचना क्रमबद्ध नहीं हुई, जैसे कोकिल अण्डे देकर दूसरों के द्वारा पालन करवाती है वैसे ही इसके फुटकर श्लोक व सूत्र अन्य ग्रन्थों में मिलते हैं। जिन जिन ग्रन्थों में गौतमाचार प्रतिपादित किया गया है वे सब सिद्धांत इन्हीं महर्षि गौतम के हैं। आज भी हमारे अधिकतर कार्य कोकिल स्मृति के आधार पर ही सम्पन्न होते हैं।


भृगु ऋषि

भृगु ऋषि व उनकी कन्या ‘श्री’ कौन थी ? यह भी स्पष्ट नहीं है। श्रीमाली ब्राह्मणों में भृगु गोत्र नहीं है। यह केवल वत्सस् गोत्र में एक प्रवर जरूर है। लक्ष्मी का विवाह भगवान् विष्णु के साथ करवाया है किन्तु महावीरकालीन गौतम के समय में ऐसा होना असम्भव लगता है। श्रीमाल नगर से उत्पन्न अन्य जातियों की किंवदन्तियों से पता चलता है कि भृगु ऋषि बड़े तपस्वी थे और उनका असली नाम श्रृंगतुंग था, यह नाम श्रीमाल पुराण में भी कहीं कहीं उल्लिखित है। इनके घर कन्या (श्री) का जन्म हुआ, अत्यन्त सुन्दर एवं दिव्य स्वरूपा होने से उसके शरीर में देवी लक्ष्मी का अहसास होना माना जाता था, उसकी अस्पष्ट वाणी देववाणी मानी जाती थी। श्री की अत्यन्त दानशीलता से प्रतीत होता है कि भृगु ऋषि राजर्षिं थे। श्री का विवाह किसके साथ हुआ यह् विवादास्पद है। कुछ के अनुसार यह विवाह वैदिक धर्मं में दीक्षित किसी राजा के साथ हुआ था। एक अन्य मत के अनुसार श्री का विवाह शालिग्राम के साथ किया गया था, हो सकता है कि यह घटना सही हो क्योंकि आज भी कई जगह ऐसा रिवाज है कि किन्ही कारणों से कन्या का प्रतीकात्मक विवाह भगवान् विष्णु के साथ संपन्न करवाया जाता है।


श्रीमाल नगर: उत्कर्ष एवं विघटन

श्रीमाल पुराण के अनुसार श्री के द्वारा बसाए जाने के कारण यह नगर श्रीमाल नगर कहलाया। माल का एक अर्थ है क्षेत्र । जहां श्रीमाल नगर की स्थापना हुई वहाँ आसपास भीलों की बस्ती अधिक होने से पूर्व में इसे भील-माल एवं बाद में भीनमाल के नाम से जाना जाता था। श्रीमाल पुराण के अनुसार लक्ष्मी के विवाह के अवसर पर ही श्रीमाल नगर की नींव पड़ी। पुराण लेखक के महीना, पक्ष, नक्षत्र व तिथि दी है, किन्तु संवत् नहीं लिखा। जैन साहित्य तथा अन्य स्रोतों के आधार पर कतिपय विद्वानों ने विक्रम संवत् के 479 वर्ष पूर्व (युधिष्ठिर संवत् 2565) माघ शुक्ला 11 भृगशिरा नक्षत्र की विजय वेला में श्रीमाल नगर का स्थापना काल निश्चित किया है।
श्रीमाल पुराण के अनुसार यहां गौतम मुनि का आश्रम था, जिनकी प्रेरणा से आसपास का सम्पूर्ण क्षेत्र तपः स्वाध्याय निरत ऋषि मुनियों के वेदमन्त्रों के घोष से गंुंजरित रहता था। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य नयनरम्य था। त्रयम्बक सरोवर की पवित्रता चमत्कारी थी। इस सुन्दर एवं पवित्र भूमि को देखकर ही श्री के मन में यहां बसने की इच्छा प्रबल हुई थी। नगर की स्थापना के समय ही लक्ष्मी की मूर्ति स्वरूप श्रीचक्र यहां स्थापित किया गया।
अपने स्थापना काल से ही श्रीमाल नगर को कई उतार चढ़ाव देखने पड़े। श्री (लक्ष्मी) की कृपा एवं दानशीलता से यह नगर शीघ्र ही समृद्धि एवं वैभव से परिपूर्ण हो गया था, किन्तु गौतम मुनि के स्वर्गवास एवं लक्ष्मी के कोपायमान हो जाने से श्रीमाल नगर के विघटन की प्रक्रिया भी शुरू हो गई। सम्भवतः इसी समय सैंधवारण्यवासी (सिन्ध सौवीर के निवासी) ब्राह्मणों ने जो नगर की स्थापना के समय ही रूठकर पुनः अपने प्रदेश सिन्ध में चले गए थे, अन्य लुटेरी जातियों के साथ मिलकर बदला लेने हेतु श्रीमाल नगर पर आक्रमण कर दिया था। सम्भवतः इस आक्रमण का नेतृत्व किसी महिला ने किया था क्योंकि गीतों एवं किंवदन्तियों में सारिका नामक राक्षसी के उपद्रवों का वर्णन इस सन्दर्भ में आता है। इन उपद्रवों से पीडि़त नगरजन, जिनमें श्रीमाली ब्राह्मण भी थे, आबू पर्वत, संुधा पहाड आदि सुरक्षित स्थानों में चले गए। श्रीमाल नगर से यह प्रयाण नगर बसने के लगभग एक शताब्दी बाद का माना जाता है। लगभग डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् श्रीपुंज राजा के आश्वासन पर इनमें से अधिकांश लोग श्रीमाल नगर लौटे फलस्वरूप यह नगर पुनः समृद्धि की ओर अग्रसर हुआ। इसके बाद के गौरव युग में यहां के श्रीमाली ब्राह्मणों ने प्रत्येक क्षेत्र में अपनी विद्वता एवं विशिष्टता की छाप छोड़ी और प्राचीन शुद्ध आर्य संस्कृति की अक्षुणयता बनाए रखने में अपना अमूल्य योगदान किया। खगोल एवं ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान ब्रह्मगुप्त इसी श्रीमाल नगर के अनमोल रत्न थे जिनका जन्म वि. सं. 656 माना जाता है। यद्यपि कतिपय विद्वान इन्हें श्रीमाली ब्राह्मण मानते हैं, किन्तु ठोस प्रमाणों के अभाव में यह मान्यता अभी सन्देहास्पद है। इन्होंने चापवंशीय (चावडा) राजा व्याघ्रमुख के राज्यकाल में, वि. सं. 685 में, अपने प्रसिद्ध गन्थों ब्रह्मस्फुटसिद्धांत एवं खण्डखाद्य की रचना की थी। भीनमाल निवासी होने से ही ये ‘भिल्लमालकाचार्य’ के नाम से ही प्रसिद्ध हुए थे। वि.सं. 800 के लगभग इसी नगर में श्रीमाली ब्राह्मण श्रीदत्त के घर में महाकवि माघ का जन्म हुआ था। माघ मास की पूर्णिमा के दिन जन्म होने से इनका नाम माघ रखा गया था। इनके पिता दानवीर एवं सब के आश्रयदाता थे। अतः लोग इनके पिता को सर्वाश्रय के नाम से ही पुकारते थे। इनके पितामय संप्रभवदेव भीनमाल के राजा वर्मलात के राजपुरोहित थे। अपनी एक ही अमर कृति ‘शिशुपालवध’ द्वारा माघ ने संस्कत के साहित्याकाश में जो उच्च कीर्ति अर्जित की, उसे निम्न श्लोक से भलीभांति समझा जा सकता है-

उपमा कालिदासस्य, भारवे अर्थगौरवम् ।
दण्डिनः पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणाः।।

यद्यपि माघ सम्पन्न थे, किन्तु अपनी दानशीलता के कारण इनका अन्तिम समय निर्धनता में ही व्यतीत हुआ था। वि.सं. 870 के लगभग तीर्थाटन को जाते हुए मालवदेश में इनका स्वर्गवास हो गया था।
वि. स.ं 1992 में भीनमाल के प्रतिहार राजा नागभट्ट ने पुष्कर में एक बड़ा पशु यज्ञ किया था तथा पुष्कर की खुदाई भी करवाई थी। पहले तो श्रीमाली ब्राह्मणों ने इस यज्ञ में भाग लेने से मना कर दिया था। किन्तु बाद में अपने ही स्वजातीय हरिऋकजी के आग्रह पर भीनमाल के श्रीमाल ब्राह्मणों ने इस यज्ञ में भाग लिया। यहीं पर सैंधवारण्यवासी ब्राह्मणों (जिन्हें श्रीमाल ब्राह्मणों के शाप से वेद यज्ञादि कार्यो में अरूचि हो गई थी ) का शाप विमोचन यज्ञ भी सम्पन्न हुआ और श्रीमाली ब्राह्मणों से उनका पुर्नंमिलन हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार तभी से ये सैंधवारण्यवासी पुष्करणा ब्राह्मण कहलाए।
श्रीमाल नगर का द्वितीय विघटन मुस्लिम आक्रमण के फलस्वरूप वि. सं. 1203 में हुआ था। मन्दिरों के विध्वंस एवं लूटपाट के कारण श्रीमाली ब्राह्मणों सहित यहां के निवासी एक बार पुनः नगर छोड़ने को विवश हुए। श्रीमाल पुराण में लक्ष्मी के पाटन जाने की तिथि भी वि.सं. 1203 दी हुई थी। इन दोनों घटनाओं में एक तारतम्य दृष्टिगोचर होता है। मुस्लिम आक्रामकों से अपनी सुरक्षा के लिए बहुत बड़ी संख्या में श्रीमाली ब्राह्मण गुजरात में निष्क्रमण कर गए जहां के चैलुक्य राजा उस समय तक मुसलमानों के विस्द्ध अजेय थे। जाते हुए वे अपनी आद्य कुलदेवी लक्ष्मी की प्रतिमा को भी सुरक्षार्थ पाटन ले गए होंगे। राजस्थान के पश्चात् गुजरात में श्रीमाली ब्राह्मणों की सर्वाधिक संख्या इसी निष्क्रमण की घटना का प्रमाण है। वि. सं. 1296 के लगभग जोधपुर के राठौड़ वंश के पूर्वज राव सिंहा ने यवनों से श्रीमाल नगर का पुनः उद्धार कर ब्राह्मणों को पुनः यहां आमंत्रित किया। इसी समय (वि. सं. 1300 के लगभग) नगर में प्राचीनकाल से स्थित लक्ष्मीजी के दोनों मंदिरों का जीर्णोद्धार भी किया गया। एक मन्दिर नगर के दक्षिण में धोराढाल में स्थित है और दूसरा बाजार के मध्य, जिसमें 31 मई 1985 को बड़े धूमधाम से प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव सत्पन्न किया गया था। सिंहा के वंशजों ने जब मारवाड़ में राठौड़ राज्य की स्थापना की तो उनकी दान, धर्म, विद्या एवं विद्वानों के संरक्षण की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर अधिकतर श्रीमाली ब्राह्मण मारवाड़ के विभिन्न स्थानों में जाकर बस गए थे। ऐसी मान्यता है कि श्रीमाल नगर की स्थापना के समय से लक्ष्मी की उपासना के लिए जो श्रीयंत्र रखा गया था वह इसी यवन आक्रमण में टूटा था। श्रीमाल नगर के पुनरूद्धार के साथ ही यह लक्ष्मी प्रतिमा जब पुनस्र्थापित हुई तो वहां के राजा से शालिग्राम शिला के साथ लक्ष्मी की प्रतिमा को उठाकर प्रज्वलित होमाग्नि की चार परिक्रमाएँ दिलवाई गई। इसी समय यह घोषणा करवाई गई कि भगवती लक्ष्मी की आज्ञानुसार सम्पूर्ण राज्य में विवाह के समय पर कन्या को उठाकर प्रज्जवलित अग्नि की चार प्रदक्षिणा करें। यह प्रथा श्रीमाली ब्राह्मणों में आज भी लक्ष्मी फेरे के नाम से प्रचलित है। श्रीमाली ब्राह्मणों के घरों में उपासना हेतु चक्र सहित शालिग्राम शिला रहती थी तथा उसके साथ श्रीचक्र रहता था। यह प्रसिद्ध लोकोक्ति अब तक चली आ रही है कि ‘शालिग्राम’ जनेऊ तथा चक्र के बिना नहीं रह सकते। घर में तुलसी का पौधा रखने एवं शालिग्राम पर तुलसीपत्र चढ़ाने की प्रथा इसी सन्दर्भ में विकसित हुई थी।


गोत्र व आमना 

श्रीमाल पुराण के अनुसारी श्रीमाली ब्राह्मणों में 14 गोत्र एवं 84 अवंटक है (देखें गोत्र अवटंक तालिका) । अवंटकों को लेकर कुछ अस्पष्टता है क्योंकि भाटों की बहियों में इनकी संख्या 126 से लेकर 162 तक देखी जा सकती है। ऋषि विशेष की सन्तान एवं शिष्यवर्ग जो उस ऋषि के नाम से चलते थे, गोत्र कहलाते थे। प्रवरकत्र्ता वे ऋषि हैं जिन्होंने गोत्रों का संचालन किया था। पूर्वकाल में जिस व्यक्ति विशेष ने कुछ महत्त्व के कार्य किए, उसकी स्मृति में उसके वंशजों को विशेष नाम से पुकारा जाने लगा उसे अवंटक कहा जाने लगा। प्रचलित भाषा में इनका नाम अटक, खाँप या नख है। पहले सिर्फ गोत्रों से पहचान होती थी और जिस व्यक्ति ने जितने वेदों का अध्ययन किया होता उसकी व उसके वंशजों की पहचान उतने ही वेदों के द्वारा होने लगी जैसे द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी । विक्रम की सातवीं-आठवीं सदी से अवंटक शुरू हुए। फिर जो व्यक्ति जहाँ जाकर बसा उस गाँव, व्यक्ति व उसके कार्य के नाम से ही वंश जाना जाने लगा, उसे ही अवंटक माना गया। कालक्रमानुसार कुछ प्राचीन अवटंक लुप्त होते गए और नए प्रक्षिप्त अवंटक जुड़ गए जैसे चाँदाजी की सन्तान दवे चाँदावत और पुर गाँव के व्यास ‘व्यास पुरेचा’।
आमनाओं का अर्थ ओलखाण (पहचान) से है। श्रीमाली ब्राह्मणों में चार आमना हैं- मारवाड़ी, मेवाड़ी, ऋषि तथा देव आमना। ऐसी मान्यता है कि वर्तमान में इन आमनाओं का प्रचलन विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में मेड़ता शहर के दवे जीवन के घर पर हुए (हेला) जाति सम्मेलन से हुआ था। यहाँ कुछ रिवाजों को लेकर झमेला पड़ा और आपस में तनाव बढ़े। यहाँ तक कि आपस में कन्याओं के लेन देन पर भी अंकुश लगा। इस हेले (न्याय पंचायत) में जो मारवाड़ से आए वे मारवाड़ी आमना, जो मेवाड़ से आए वे मेवाड़ी आमना, जो विवादग्रस्त मुद्दों पर समझाने का प्रयत्न करते रहे वे देव आमना और जो विवाद से तटस्थ रहे वे ऋषि आमना से पहचाने जाने लगे।
श्रीमाल नगर के द्वितीय विघटन के बाद श्रीमाली ब्राह्मणों का सात सौ घरों का एक समूह मेवाड़ के राणा मोकल (राणा कुम्भा का पिता) के काल में (वि.सं. 1478 से 1490) कुम्भलगढ़ में जाकर बस गया। यहीं से बाद में कुछ श्रीमाल ब्राह्मण गौडवाड़ एवं मारवाड़ में जाकर बसे। इन दिनों मेवाड़ में प्रचलित कन्या विक्रम प्रथा को रोकने का बीड़ा त्रिवाडी दशोत्तर पंुजाजी ने उठाया। कुम्भलगढ़ के व्यास डिबलिया मेहरखजी की पत्नी ललिता की वर्षी पर इकट्ठे श्रीमाली ब्राह्मणों ने कन्या विक्रम बन्द करने का प्रस्ताव किया। प्रस्तावक पुंजाजी सहित चार व्यक्ति जो समर्थन में थे। उनमें से एक संशय में रहा। इसलिए वे साढ़े तीन पुड तथा संशय वाला आधा पुड कहलाया और जो नौ व्यक्ति इस प्रस्ताव के विरोध में थे वे नौ पुडी कहलाए। पुड की तरह ही कुछ अन्य घटनाओं को लेकर श्रीमाली ब्राह्मणों में दशा-बिसा इत्यादि छोटे-छोटे घटक बनते गए जो जातीय एकरूपता में बाधक सिद्ध हुए। नवीन घटकों के उदय एवं उनकी रूढ तथा संकीर्ण मनोवृत्ति के परिप्रेक्ष्य मेें इस जातीय समुदाय की पहचान ‘श्रीमाली’ शब्द के व्यापक बोध में ही सुरक्षित बनी हुई है।


2 thoughts on “उत्पति और इतिहास”

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