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अखिल भारतवर्षीय श्रीमाली ब्राह्मण समाज संस्था, पुष्कर

।। श्री महालक्ष्म्यै नमः ।।

वेदविद्या, कर्मकाण्ड एवं शास्त्रोक्त ज्ञान के कारण श्रीमाली ब्राह्मण प्राचीन काल से ही समाज के प्रत्येक वर्ग में प्रतिष्ठित रहे हैं। ब्राह्मण शब्द का अर्थ ही वेदों के उस भाग से है जिसमें कर्मकाण्ड समझाया गया है। श्रीमाली ब्राह्मण इसी विशिष्टता का प्रतिनिधित्व करते हुये वेदाध्यायी, कर्मकाण्डी तथा शुद्ध उच्चारण के लिये समस्त ब्राह्मणों में प्रसिद्ध हैं। अपने शास्त्रोक ज्ञान एवं अधव्यवसाय के कारण वे श्रीमाल नगर ‘भीनमाल’ से निकल कर भारत के विभिन्न प्रदेशों विशेष रूप से राजस्थान एवं गुजरात के अन्दरूनी क्षेत्रों में शीघ्र ही स्थापित हो गये। अल्प संख्या में होने के कारण वे जहां भी थोड़े से समूह में बसे उन्होंने शीघ्र ही उसे ‘ब्रह्मपुरी’ का नाम दे दिया और वहां पर अपनी कुलदेवी श्री महालक्ष्मी जी का मंदिर स्थापित कर दिया। इस प्रकार अपनी विद्या, कर्मकाण्ड तथा विशिष्ट रीति-रिवाजों के कारण उन्होंने अपनी पृथक किन्तु समूहगत पहचान बना ली और अपनी प्रारंभिक जनसंख्या के आधार पर श्रीमाली ब्राह्मण समाज का यह समूह ‘पेतालीस हजार न्यात’ के नाम से विख्यात हो गया, जिसका विस्तृत इतिहास स्कन्द पुराण के अन्तर्गत ‘श्रीमाल पुराण’ के रूप में मिलता है।

तीर्थराज पुष्कर के धार्मिक महत्व के कारण तीर्थयात्रा से लौटते समय, कार्तिक मास में तथा अन्य दिनों में श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक कर्मकाण्ड सम्पन्न कराने की दृष्टि से श्रीमाली ब्राह्मणों का प्राचीन काल से यहाँ पर निरन्तर आगमन रहा है। आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व कुछ प्रबुद्ध समाज सेवी एवं दूरद्रष्टा विद्धत्जनों में यह विचार हिलोरें मारने लगा कि पुष्कर तीर्थ की यात्रा पर एवं कात्र्तिक पर्व पर आने वाली श्रीमाली ब्राह्मण यात्रियों के लिये अपना स्वयं का एक ऐसा न्यातिस्थल होना चाहिये जो पेतालीस हजार न्यात को प्रतिबिम्बित कर सकें। जब यह विचार सुदढ़ होकर विभिन्न क्षेत्रों में सन्देश के रूप में प्रचारित हुआ तब अनेक प्रबुद्ध समाज सेवी कार्तिक पर्व पर इस मकान (वर्तमान श्री महालक्ष्मी मंदिर) में एकत्र होना शुरू हुये और यहाँ सामूहिक न्यातिभोज (सोबा) का आयोजन किया जाने लगा तथा इस स्थान को शिवबाड़ी कहा जाने लगा। इन सारी गतिविधियों का लेखा-जोखा भी न्याति बही के रूप में इस समय से लिखा जाने लगा। पुष्कर न्यात की पुरानी बही के अनुसार सर्वप्रथम विक्रम संवत् 1969 में कार्तिक पर्व पर शिवबाड़ी में सभी क्षेत्रों से आये श्रीमाली ब्राह्मण एकत्र हुये और न्यातिभोज (सोबा) का आयोजन किया गया। इसी अवसर पर किशनगढ़ निवासी व्यास छोगालाल जी के नेतृत्व में श्रीमाली ब्राह्मणों ने विजयशंकर पाराशर के इस मकान को खरीदकर यहाँ श्री महालक्ष्मी मंदिर की स्थापना करने का निर्णय लिया। इस कार्य हेतु समाज के अग्रणी लोगों ने विभिन्न कस्बों में पत्र लिखकर न्याति बन्धुओं से चन्दा एकत्र (पानडी) करने का कार्य शुरू करने की अपील की।

श्री महालक्ष्मी मंदिर की स्थापना

वि. संवत् 1970 का वर्ष श्री महालक्ष्मी मंदिर की स्थापना का वर्ष था। जब एक ओर विभिन्न स्थानों के श्रीमाली ब्राह्मणों ने एकमत से (पत्राचार व पानडी द्वारा) इस मकान को खरीदकर श्री महालक्ष्मी मंदिर की स्थापना पर सहमति व्यक्ति की, वही दूसरी और पुष्कर गुरू विजयशंकर ने भी अपने मकान का बेचाननामा श्री महालक्ष्मी मंदिर के लिये कर देने की न्यात को मौखिक सहमति देदी थी। यह तथ्य इस बात से प्रमाणित होता है कि पुरानी बही में वि.सं. 1970 की विगत में इस स्थान को ‘श्री महालक्ष्मी मंदिर शिवबाड़ी’ के रूप में उल्लेखित किया गया है। पोते की बही से पता चलता है कि इसी वर्ष से श्री महालक्ष्मी जी की मूर्ति की स्थापना के लिये पानडी (चन्दा) शुरू हुई थी और विधिवत् इस स्थान के अधिग्रहण के पूर्व ही श्री महालक्ष्मी मंदिर के लिये रूपयों के साथ-साथ बर्तन, आभूषण आदि की भेंट आनी शुरू हो गई थी तथा इसी वर्ष से न्याति सोबे (ब्रह्म भोज) भी प्रतिवर्ष नियमित हो गये थे।

श्री महालक्ष्मी मंदिर के लिये जमीन की खरीद से लेकर मूर्ति की प्रतिष्ठा तक के कार्यक्रम की योजना एवं क्रियान्विति तत्कालीन त्रिमूर्ति किशनगढ़ निवासी व्यास छोगालाल जी, सोजत निवासी त्रिवेदी नन्दरामजी एवं अजमेर निवासी दवे शिवशंकर जी के अथक प्रयासों का परिणाम थी। सर्वप्रथम इन लोगों ने विजयश्ंाकर से न्याति के नाम पर जमीन की खरीद का समझौता सम्पन्न किया। विजयशंकर पाराशर चाहता था कि इय जमीन की बेचान के बदले में न्याति श्रीमाली ब्राह्मण समाज उसे पुष्कर गुरों के रूप में मान्यता दें और जमीन की कीमत से पुष्कर गुरों की दोनों बस्ती के भोज का खर्च उठावे।

कार्तिक पूर्णिमा वि. सं. 1971 की वार्षिक आमसभा में न्याति से इस समझौते का अनुमोदन करवाया गया। इस सभा में सोजत के त्रिवेदी नन्दरामजी ने श्री महालक्ष्मी जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा का खर्च स्वयं के द्वारा वहन किया जाने की घोषणा की। अगले वर्ष 1972 वि. सं. में प्रतिष्ठा समारोह आयोजित करने का भी निर्णय लिया गया तथा मूर्ति एवं मंदिर निर्माण के अन्य खर्चों के लिये पूरी न्याति में पानडी फेरने का भी निर्णय लिया गया।

उपरोक्त समझौते के अनुरूप दो अलग-अलग इकरारनामें एक ही तिथी को मार्गशीर्ष कृष्णा 2 वि. सं. 1971 तदनुसार 4 नवम्बर 1914 ई. को सम्पन्न किये गये। प्रथम इकरारनामे के अनुसार विजयशंकर ने अपना मकान श्रीमाली ब्राह्मण पेंतालीस हजार न्यात को बेचान कर दिया, जिसकी रजिस्ट्री दि. 26.8.1915 को सब रजिस्ट्रार कार्यालय अजमेर में सम्पन्न की गई। दूसरे इकरारनामे के अनुसार न्याति ने विजयशंकर को श्रीमाली ब्राह्मणों के औपचारिक पुष्कर गुरू के रूप में मान्यता प्रदान की तथा वहां स्थापित होने वाली श्री महालक्ष्मी जी की पूजा का अधिकार उसे तथा उसके वंशजों को प्रदान किया तथा पुष्कर गुरों की दोनों बस्ती के भोजन खर्च के रूप में रू 650/- भुगतान किया, जो उस समय उक्त जमीन की कीमत के बराबर था।

न्याति जागृति की अनुपम मिसाल – त्याग की तपोमूर्ति व्यास छोगालाल जी, विद्वता की प्रतिमूर्ति त्रिवेदी नन्दराम जी एवं समाज सेवा के प्रतिरूप दवे शिवशंकर जी ने श्री महालक्ष्मी मंदिर की जमीन की रजिस्ट्री न्याति हक में सम्पन्न हो जाने से उत्साहित होकर अब यहां पर श्री महालक्ष्मी की प्रतिष्ठा को न्याति गौरव का स्वरूप देने का निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये इस ‘त्रिमूर्ति’ ने पेतालीस हजार न्यात श्रीमाली ब्राह्मण समाज को जागृत करने और इन्हें एक झण्डे तले लाने का बीडा उठाया। इकरारनामा सम्पन्न होने के तुरन्त बाद 17 नवम्बर 1914 ई. को इस उद्देश्य से बड़ी संख्या में सूचना पत्र (पेम्पलेट) छपाये गये जिनमें पुष्करराज शिवबाड़ी में श्री महालक्ष्मी जी की प्रतिष्ठा उत्सव के लिये पानडी (चंदा) भेजने की अपील की गई थी। गांव – गांव में न्याति समाज को एवं व्यक्तिशः ये सूचनापत्र भेजे गये। किशनगढ़ निवासी व्यास छोगालाल जी, ने जो ब्रह्मचारी एवं वीतरागी थे, अपना पूरा समय न्याति सेवा में अपर्ण कर दिया और वे स्थायी रूप से श्री महालक्ष्मी मंदिर पुष्कर में ही निवास करने लगे। उनके नाम से मंदिर के पते पर विभिन्न स्थानों से शीघ्र ही मनिआर्डर द्वारा चन्दे की राशि आनी शुरू हो गई। इसके अलावा न्याति की ओर से कुछ समाज सेवी बन्धु पानडी के लिये गांव – गांव में भी गये। वि. सं. 1971 से 1973 के बीच श्री महालक्ष्मी मंदिर के लिये व्यास छोगालाल जी के नेतृत्व में आयोजित चन्दा उगाही के इस प्रथम भ्रमण अभियान का विस्तृत विवरण न्याति की एक बही (बी – 1) में दिया हुआ है। यहां उन गांवों के नाम दिये जा रहे हैं जहां कि स्थानीय न्यात से प्राप्त चन्दा राशि बही में जमा दिखाई गई है – सोजत, पाली, जोधपुर, नागौर, बीकानेर, किशनगढ़, परबतसर, रायपुर, पीपाड़, टोडाभीम, खेजडला, बगड़ी, बाली, घाणेराव, देसूरी, नारलाई, नाडौल, मूण्डवां, मेडता, हरसोल, पीपलाज, राणावास, ब्यावर, जैतारण, अटपड़ा, माण्डा, चण्डावल, कंटालिया, कालन्दी, सिरोही, नाणा, साण्डेराव, खीमेल, सादड़ी, राखी, धुधांडा, काणा, पुनाडियाँ, खारलों, बीजापुर, देवली, धारियापा, माडलो, पैरवा, भिनाय, हरजी, जालोर, भीनमाल, समदडी, बालोतरा, सिवाणा, खैरवा इत्यादि।

श्री महालक्ष्मी जी की कृपा में अभिवृद्धि नोहरे की खरीद

प्रतिष्ठा पूर्व ही श्री महालक्ष्मी जी श्रीमाली ब्राह्मणों पर कितनी तुष्टमान हो रही थी इसका एक अद्भुत उदाहरण वि.संवत् 1972 में निर्धारित प्रतिष्ठा समारोह का स्थगन था। दो प्रमुख कारणों से इसे एक वर्ष के लिये स्थगित कर दिया गया था। प्रथम जिस तिथी को प्रतिष्ठा मुकर्रर की गई थी उसी तिथी को पं. नन्दराम जी के परिवार में विवाह निश्चित हो गया था और दूसरा न्याति पंचों को जब यह पत्ता चला कि मंदिर के सामने की जमीन कोई मुस्लिम परिवार खरीद रहा है तो उन्होंने न्यातिहित में सर्वप्रथम इस जमीन को खरीदने को तरजीह दी और संभवतः इस होड में उन्होंने अधिक राशि प्रदान करके भी रू. 525/- में नोहरे (श्री महालक्ष्मी श्रीमाली सदन) की इस जमीन का सौदा तय किया। इसके पश्चात् कार्तिक पूर्णिमा वि.सं. 1972 की न्याति की आमसभा में इस सौदे के अनुमोदन के साथ ही श्री महालक्ष्मी प्रतिष्ठा समारोह अगले वर्ष वैशाख कृष्णा 13 वि.सं. 1973 को आयोजित करने का निर्णय लिया गया। एक अन्य प्रस्ताव में नोहरा जमीन की कीमत रू. 525/- तथा श्री महालक्ष्मी मंदिर जीर्णोद्वार हेतु रू. 2000/- कुल रू. 2525/- के प्रस्ताविक खर्चे को पूरा करने हेतु समस्त न्यात गंगा से एक बार पुनः आर्थिक सहायता की अपील जारी की गई। कार्तिक मेले के शीघ्र पश्चात् इस जमीन की रजिस्ट्री न्याति हक में दिन. 12 जनवरी, 1916 ई. को सम्पन्न की गई। इस प्रकार प्रतिष्ठा समारोह के पूर्व ही कुलदेवी श्री महालक्ष्मी जी की महती कृपा से मंदिर के ठीक सामने की मौके की जमीन श्रीमाली ब्राह्मणों को प्राप्त हो गई, जो न केवल प्रतिष्ठा समारोह के अवसर पर बल्कि भविष्य में भी हमारे लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई।

श्रीमहालक्ष्मी प्रतिष्ठा समारोह

श्री महालक्ष्मी प्रतिष्ठा समारोह के अवसर पर ‘पेतालीस हजार न्यात’ का प्रतिनिधित्व करने हेतु आयोजकों ने प्रत्येक गाँव में जहाँ श्रीमाली ब्राह्मणों की बस्ती थी, निमन्त्रण पत्रिकाएँ भेजकर स्थानीय न्याति पंचों को आमन्त्रित किया। श्रीमाली ब्राह्मण जाति के ज्ञात इतिहास में पहली बार विभिन्न क्षेत्रों के 361 गाँवों के प्रतिनिधियों ने यहाँ एकत्र होकर श्रीमाली ब्राह्मण न्याय गंगा को भव्य एवं साकार स्वरूप प्रदान किया। वैशाख कृष्णा 13 वि.सं. 1973 को अत्यन्त धूमधाम एवं भव्य समारोह के साथ श्री महालक्ष्मी मंदिर पुष्कर में (देखें निज मंदिर का शिलालेख) श्री महालक्ष्मी जी की नवीन मनोहारी प्रतिमा स्थापित की गई। सोजत निवासी त्रिवेदी नन्दराम जी प्रतिष्ठा समारोह के मुख्य यजमान थे। प्रतिष्ठा समारोह के इस महोत्सव पर वैशाख कृष्णा द्वादशी, त्रयोदशी एवं चतुर्दशी को तीन दिन तक लगातार तीनों न्यातें श्री नन्दराम जी की तरफ से आयोजित की गई। प्रतिष्ठा समारोह की सारी व्यवस्था का संचालन तत्कालीन न्याति अध्यक्ष श्री छोगालाल जी व्यास ने किया था।

श्री महालक्ष्मी जी की पूजा व्यवस्था एवं पुजारी

प्रतिष्ठा समारोह के तुरन्त बाद पुष्कर गुरू विजयशंकर और न्याय के बीच सम्पन्न इकरारनामें के अनुसार ज्येष्ठ कृष्णा 1 वि.सं. 1973 को श्री महालक्ष्मी मंदिर के प्रांगण में पुष्कर गुरों की दोनों बस्ती को न्याति की ओर से ब्राह्मण भोजन कराया गया। इसी अवसर पर श्री विजयशंकर को साफा पहनाकर, नारियल, दुपट्टा भेंट कर श्रीमाली ब्राह्मणों के पुष्कर गुरू के रूप में विधिवत् प्रतिष्ठित किया गया था। इस सारी व्यवस्था का संचालन हरजी निवासी व्यास ताराचन्द, सोजत निवासी व्यास मनकरण एवं भीनमाल निवासी व्यास रामाराम जी के द्वारा किया गया था। 4 नवम्बर, 1914 ई. को न्याति और पुष्कर गुरू विजयशंकर के बीच सम्पन्न इकरारनामे के अनुसार श्री महालक्ष्मी मंदिर में प्रतिष्ठित होने वाली लक्ष्मी जी की पूजा का वंशानुगत अधिकार बडी बस्ती पुष्कर निवासी पाराशर ब्राह्मण श्री विजयशंकर को इस शर्त के साथ प्रदान किया गया कि वह अपने खर्चे से सुबह शाम लक्ष्मी जी की पूजा-आरती करेंगे। बदले में वह लक्ष्मी जी की भेंट एवं पिंडा के निमित्त आने वाली भेंट का अधिकारी होगा । इसके साथ ही सोबा करने वाला एक रूपया नारियल प्रदान कर उसे तथा उसके परिवार के सदस्यों को भोजन कराएगा।

 

श्री महालक्ष्मी मंदिर का निर्माण

श्री महालक्ष्मी मंदिर स्थापना एवं इस स्थान के अधिग्रहण के पूर्व ही श्रीमाली ब्राह्मणों ने इस जीर्ण-क्षीर्ण मकान की मरम्मत एवं जीर्णोद्वार पर पैसा खर्च करना शुरू कर दिया था। पुरानी न्याति बही की जमा-खर्च विगत से भी पता चलता है कि श्रीमाली ब्राह्मणों ने वि.सं. 1969-1970 से ही यहाँ पर सोबा, कार्तिक पूर्णिमा पर न्याति पंचायत के साथ-साथ इस मंदिर की मरम्मत एवं जीर्णोद्वार कार्य भी शुरू कर दिये थे। लक्ष्मी जी की प्रतिष्ठा के पूर्व ही इस मंदिर के लिये रूपये, बर्तन पोशाक एवं आभूषणों की भेंट आनी शुरू हो गई थी जिसकी जमा विगत बही में प्राप्त होती है। वि.सं. 1971 में मंदिर स्थान की रजिस्ट्री न्याति के नाम होते ही श्री महालक्ष्मी मंदिर का निर्माण कार्य पूरे उत्साह से श्ुारू हो गया और जीर्णोद्वार पानडी की राशि में तेजी से वृद्धि हुई । इसी के परिणाम स्वरूप वि.सं. 1972 में न्याति पोते की रकम से निज मंदिर की साल, प्रदक्षि एवं आसपास के कमरों का व्यवस्थित ढंग से पुर्ननिर्माण किया गया। वि.सं. 1973 में श्री महालक्ष्मी जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा के साथ ही मंदिर निर्माण का कार्य दानदाताओं के सहयोग से तेजी से होने लगा, जो विभिन्न जीर्णोद्वार कार्यो के साथ 29 कमरों से युक्त विशालकाय एवं पूर्ण स्वरूप ग्रहण कर चुका है।

 

श्री महालक्ष्मी जी रो भण्डार

श्री महालक्ष्मी जी की प्रतिष्ठा के साथ ही श्री महालक्ष्मी जी का भण्डार नकद रूपयों, बर्तन व आभूषण आदि से स्मृद्ध होना शुरू हो गया था। वि.सं. 1969-70 में न्याति पोते का श्री गणेश रू. 138/- से शुरू हुआ था जो पिछले वर्ष दस लाख रूपयों में माघ भवन की खरीद के पश्चात् वर्तमान वित्तीय वर्ष की समाप्ति दिनांक 31.3.99 पर न्याति पोते में रू. 376707/- अधिशेष जमा है। न्याति पोते की आय का मुख्य स्रोत मेले पर प्राप्त भेंट राशि, जीर्णोद्वार की पानडी में प्राप्त भेंट राशि और आजीवन सदस्यता के रूप में प्राप्त राशि रहा है। श्री महालक्ष्मी जी की महती कृपा से वर्तमान में अचल सम्पत्ति के बतौर यहाँ न्याति के चार भवन है। तथा चल सम्पत्ति के रूप में आभूषणों, बर्तनों, आदि से भण्डार भरा-पूरा है।

 

सोबा (ब्रह्मभोज)

पेतालीस हजार न्यात गंगा के लिये श्री महालक्ष्मी मंदिर पुष्कर का एक प्रमुख आकर्षण प्रतिवर्ष यहाँ पर पंच तिथियों में होने वाले सोबे है। शाब्दिक दृष्टि से सोबा ‘शोभा’ शब्द का अपभ्रंश है। पुष्कर में कार्तिक पर्व पर जिस व्यक्ति द्वारा ब्रह्मभोज अर्थात् न्यातिभोज आयोजित किया जाता है। उससे उसकी शोभा होती है या शोभा बढ़ती है इसी बात को इस रूप में कहा जाने लगा कि आज अमुक व्यक्ति का सोबा (शोभा) है। पुष्कर न्यात की पुरानी बही के अनुसार सर्वप्रथम वि. सं. 1969 (सन् 1912ई.) से नियमित सोबे शुरू हुये थे। जो कुछ अन्तरालों को छोड़कर वर्तमान समय तक न केवल नियमित रूप से चल रहे हैं बल्कि पिछले कुछ वर्षो से पुष्कर में सोबा करने वालों की संख्या एवं उत्साह बहुत तेजी से बढ़ा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि विभिन्न कारणो से (स्थानीय मतभेद) स्थानीय न्यातें होनी लगभग बंद हो गई है और जो लोग न्यात करना चाहते हैं उन्हें पुष्कर ही ऐसा सर्वोत्तम स्थान दिखाई देता है जहाँ सही अर्थो में कार्तिक पर्व पर विभिन्न स्थानो से आये श्रीमाली बन्धुओं की सामूहिक न्यात गंगा के दर्शन होते हैं, जहाँ भोजन पर बैठे पंक्तिबद्ध पीताम्बर धारी श्रीमाली ब्राह्मण आज भी न्यातिभोज की प्राचीन परम्परा को जीवन्त बनाये हुये दिखाई देते है।

 

पुष्कर कमेटी

श्री महालक्ष्मी मंदिर पुष्कर में वि. सं. 1969-70 में श्रीमाली बन्धुओं ने व्यवहारतः न्याति पंचायत शुरू कर दी थी। किशनगढ़ निवासी व्यास छोगालाल जी तत्कालीन अनौपचारिक न्याति संस्था ‘पुष्कर कमेटी’ के प्रथम संस्थापक अध्यक्ष थे। वे ब्रह्मचारी थे एवं छोगजी महाराज के नाम से लोकप्रिय थे। श्री महालक्ष्मी मंदिर स्थापना के प्रति उनकी लगन, त्याग एवं सेवा भावना इतनी उत्कट थी कि इस कार्य को पूरा करने के लिए उन्होंने मंदिर में ही अपना स्थायी निवास बना लिया था। सौभाग्य से उन्हें सोजत निवासी त्रिवेदी नन्दराम जी एवं अजमेर निवासी दवे शिवशंकर जी के रूप में दो ऐसे अनन्य समाज सेवी साथी मिले जिनके सहयोग से वि.सं. 1970 में व्यवहारतः श्री महालक्ष्मी मंदिर पुष्कर समस्त श्रीमाली ब्राह्मणों का एक केन्द्रीय न्यातिस्थल बन गया। अगले तीन वर्ष इस त्रिमूर्ति के लिये न्याति सेवार्थ अग्निपरीक्षा के कठिन दौर में गुजरे जब इन्होंने भारत के विभिन्न स्थानों में बसे श्रीमाली ब्राह्मणों से सम्पर्क कर (लक्ष्मी प्रतिष्ठा के लिये प्रसारित विज्ञप्तियों, व्यक्तिगत पत्र व्यवहार एवं प्रथम व्यापक भ्रमण अभियान के जरिये) उनमें सुप्त न्याति भावना को जागृत किया और पुष्कर स्थित श्री महालक्ष्मी मंदिर को श्रीमाली ब्राह्मण समाज के एक सर्वोच्च एवं केन्द्रीय मंच के रूप में सफलतापूर्वक स्थापित किया। वि.सं. 1971 में मंदिर जमीन की खरीद एवं पुजारी के साथ सम्पन्न इकरारनामों में विभिन्न स्थानों से आये प्रमुख न्याति बन्धुओं के हस्ताक्षरों से भी इस बात की पुष्टि होती है। वैशाख कृष्णा 13 वि.सं. 1973 को सम्पन्न श्री महालक्ष्मी जी के भव्य प्रतिष्ठा समारोह में 361 गाँवों से आमन्त्रित सैकड़ों श्रीमाली बन्धुओं ने इस शताब्दी में पहली बार न्यात गंगा को जीवन्त एवं साकार स्वरूप प्रदान किया था।

 

पुष्कर मेले पर र्कािर्तक पूर्णिमा को ही मंदिर में न्याति पंचायत होती थी और इसी समय पूरे साल भर की व्यवस्था बनाये रखने हेतु आमसभा में निर्णय लिये जाते थे। इसकी क्रियान्विति के लिये ही पुष्कर कमेटी, अस्तित्व में आई थी। श्री छोगालाल जी एवं उनके सहयोगि द्वारा स्थापित पुष्कर कमेटी की पहचान एक स्थान (श्री महालक्ष्मी मंदिर, पुष्कर), एक झण्डा (कुलदेवी श्री महालक्ष्मी जी) एवं एक नेता (सामाजिक एकता की अध्यक्षीय परम्परा) के रूप में पेतालीस हजार न्यात में बुलन्द हो गई थी जो इतनी ठोस नींव पर लोकतान्त्रिक रूप से स्थापित की गई कि आज तक निर्बाध रूप से कायम है। श्री महालक्ष्मी जी की प्रतिष्ठा के पश्चात् अगले लगभग दो दशक तक अजमेर निवासी श्री शिवशंकर जी के द्वारा पुष्कर कमेटी का संचालन सफलतापूर्वक होता रहा। वि.सं. 1995 से लेकर 2002 तक खोडेचा निवासी बंशी महाराज एवं जोधपुर निवासी मुकन महाराज की जोडी ने यहाँ की व्यवस्था को कुशलतापूर्वक आगे बढ़ाया और पुष्कर कमेटी को मजबूती प्रदान की। इन दोनों का इस न्यात संस्था के प्रति समर्पण भाव अत्यन्त सराहनीय रहा है।

 

यद्यपि कार्तिक पूर्णिमा पर एकत्र श्रीमाली बन्धु अपने अध्यक्ष का चुनाव करते थे किन्तु अनेक कारणों से पुष्कर कमेटी का स्वरूप एवं कार्यकाल घटता बढ़ता रहा और वि.सं. 2034 में नवनिर्वाचित अध्यक्ष श्री दुर्गाश्ंाकर जी के पद भार ग्रहण के पश्चात् ही इस व्यवस्था में स्थायित्व आ पाया। अनेक वर्षो के विचार विमर्श के पश्चात् एवं श्री अमरदत्त बोहरा जोधपुर के संयोजकत्व में बनी कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर इस संस्था के नवनिर्मित विधान का विधिवत् गठन किया गया जो वर्तमान में आंशिक संशोधनों के साथ कार्यरत है। इसके बाद से ही पुष्कर कमेटी की यह व्यवस्था आज तक निर्बाध रूप से, नियमित एवं सुचारू रूप से चल रही है।

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